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ब्रह्मवाद निराकरण.
सत्ताने अंगीकरी, माने अद्वैत एम; संग्रहनय एकान्तथी, तरे भवोदधि केम. २३८ प्रथम विषम दृष्टान्तथी, साध्यसिद्धि शुं थाय; प्रतिबिम्बरूपितj, अरूपि शं ते पाय. २३९ प्रतिबिम्ब पुदगलतणु, जल चन्द्रे दृष्टान्त; जीव अरूपी वस्तुमां, प्रतिबिम्ब नहि भ्रान्त. २४० प्रतिबिंबथी जाणशो, प्रतिबिंबक छे भिन्न प्रतिबिंबकना भावथी, प्रतिबिंब छे खिन्नः २४१ प्रतिबिंबित चन्द्रनु, भिन्नपणुं त्यां छेक; कथं साध्यनी सिद्धि छे, छे नहीं चेतन एक. २४२ व्यापक आतम एकनु, अंशपणुं नहीं होय; भिन्न भिन्न जीवांशथी, आतम एक न जोय. २४३ आतम एकथी सर्वने, शर्म दुःख समकाल; सुख दुःख आच्छादक कहो, दैतपणुं त्यां भाळ.२४४ घटाकाश उपाधिथी, ग्रहो गगननो भेद; तेवी उपाधि अत्र नहीं, सुख दुःख वारक वेद.२४५ समकाले सुख दुःखनो, जीवोने प्रतिभासः अधिक न्यून प्राप्तितणो, मळे नहीं अवकाश. २४६ मळे नहीं अवकाश तो, तेनुं कारण कोण; भिन्न भिन्न चेतन विना, घटे नहि कंइ और. २४७
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