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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आत्मदृष्टि: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५० ) दूर थायछे. सद्गुरूने वांदवाथी आत्मामां वंयपणुं प्रगटेछे. गुरुनी गुरुता अलौकिक छे. गुरूनी गुरूता वर्णी शकाय तेम नथी. भव्य जीवो गुरूनी सेवा करतां गुरुनी गुरूता माप्त करेछे. श्री सद्गुरू कथित अनंतगुणधाम भूत चेतनमां सदाकाल रमकुं ते दर्शावे छे. दुहा. अज अविनाशी जीवछे, अखंड आनंद पूर; अंतर्दृष्टि देखतां चेतन नहींछे दूर. ॥१४४॥ " ॥१४५॥ ॥१५६॥ चेतनगत तुज धर्म देख, " बाहिर क्यां कर ख्याल; बाहिर्दृष्टि देखतां, भवनी अरहट्ट माल. ध्यान धारणा धरीने, देखो आत्मस्वरूप; बहिरूपाधि त्यागतां, शिवशाश्वतचिद्रूप मूढ बन्यो मानव कहे, ओ जाणे जगमूढ | आतम ज्ञांनी सुख लहे, ए अंतरनुं गूढ. रागद्वेष परिणामनी, ग्रंथियां छेदाय ॥ शून्यदशा पुद्गलतणी, सहेजे शांति पाय. ॥१४८॥ For Private And Personal Use Only ॥१४॥ भावार्थ-अज अने अविनाशी एवो आत्माछे. आत्मा अनादि कालथीछे माटे ते अज कहेवाय छे। अने अनंतछे माटे अविनाशी कहेवायछे. अखंड अने आनंदथी परिपूर्ण आत्माछे यत्र आनंदछे तत्र आत्माछे. आनंदनो ज्ञाता तथा आनंदनो भोक्ता आत्माजछे. अंतर्दृष्टिरूप ज्ञानदर्शनथी देखतां आत्मा शरीरमांज रहेलोछे. पोतानाथी दूर नथी. आत्मानी शोधखोळ माटे परदेश जवा जरुर नथी. शरीरमांज व्यापी रहेलो आत्मा ज्ञानदृष्टिथी
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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