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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २७१ ) शनि, धर्म श्रवणी भेदज्ञान थायछे अन तेथी स्वपरनो विभाग करतां सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाशछे. तेमां श्रुतज्ञाननो महा उपकार समजवो, त्रिकाल सर्वज्ञ वीरप्रभुए केवलज्ञानथी सर्व पदार्थोंने जोया अने वाणीथी ते पदार्थोनुं स्वरूप कथ्युं. ते भगवान्नी स्वपर प्रकाशक वाणीनेज श्रुतज्ञान सूत्रसिद्धांत रूप कथेछे हालपण भगवान्नी वाणी जयवंती वर्तेछे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसन्नभव्यी भगवद्वाणीरूपगंगा प्रवाहमां स्नान करी संसारना तापथी शांति पामेछे अने पामशे. महाविदेह क्षेत्रमां अनादिकाळथी समकितश्रुत अने मिथ्याश्रुत वर्ते छे. सुश्रुतनो हे भव्यो आदर करो वखत वही जायछे, वखत अमूल्यछे गयो वखत पश्चात् आवनार नथी. भव्य जीवोए वारंवार श्रुतज्ञाननो अभ्यास करवो. अवधिज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थवाथी अवधिज्ञान उत्पन्न थायछे. अवधिज्ञानना षड्भेदछे. अने वळी असंख्यात भेदे प्रवर्तेछे. मनः पर्यवज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमथी मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न थायछे, मनपर्यवज्ञान वे प्रकारेछे. केवलज्ञान क्षायिकभावे उत्पन्न थायछे. शुक्लध्यानना बीजो पायो ध्यावतां बारमे गुणठाणे केवलज्ञानावरणीयकर्मनो सत्ताथी पण सर्वथा क्षय थाय छे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान परोक्षछे अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञान देश प्रत्यक्षछे. केवलज्ञान सर्वथी प्रत्यक्षछे. आ प्रमाणे ज्ञाननी प्राप्ति थतां आत्मा परमात्मस्वरूप बनेछे. ज्ञाननी प्राप्ति थतां दर्शनावरणीयादि कर्मनो सर्वथा क्षय वायछे. जे जे कर्मप्रकृतिनो जे जे गुणठाणे क्षय थवानो होयछे ते ते गुण • For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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