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(१२)
भारमार्थि शिष्यवाण. अने कायाने गुरुनी आज्ञा मरमी अनुसार प्रवावे, कदी गुरुनी आज्ञानो लोप करे नहीं, विपरीत मार्गमा अज्ञान, प्रमाद, मतिभ्रमयी चालतां गुरु भक्तोने गुरु महाराज शीखामण आपता क्रोध थाय नहीं, गुरु प्रत्यक्ष होय वा परोक्ष होय तो पण देवनी पेठे तेनुं सदा ध्यान करे, परोपकारनी स्मृति लावे. अने गुरुनी भक्तिमां शिष्य सदा आसक्त रहे, अने गुरुना गुणोनो सर्वनी आ. गळ प्रकाश करे, कोइ गुरुनी निंदा सांभळवाना करतां पृथ्वीमां पेसी जवू सारु, कोइ एम कहेशे के गुरुमां दोषो होय तो केम गुरुने मानवा ? अत्र समजवानु के अन्यना कहेवाथी दोषोनी शंका लाववी नहीं, दोषो होय तो पण ढांकवा, उपकारीना उपकारर्नु लक्षण ए छे के कोइ कर्म उदयनी प्रबळताथी गुरु अवळा मार्गे चाले तो गुरुभक्त बुद्धियुक्तिप्रयत्नथी ठेकाणे लावे. पण प्राण जतां तेमनी अन्यना आगळ निंदा करे नहीं, निंदा करवायी कंड फायदो यतो नथी माटे परोपकारबशिष्य, गुरुना अवगुण प्रकाशे नहीं, गुरुद्रोही गुरुनिंदक कुशिष्यने आत्मज्ञान सवलं परिणमतुं नथी, अरिहंतनी स्तुतिथी जेटलो लाभछे, तेटलो गुरुनी स्तुतिथी लाभ जाणवो. दीक्षादायक पण धर्मगुरु होयछे, उपर कहेला लक्षणो जेनामां होय तेने गुरुभक्तो जाणवा, पवा गुरुभक्तो संसार समुद्रनो पार पामी शकेछ, सत्य असत्य धर्मनी परीक्षा करनार पण शिष्य होवा जोइए, तेम देवनु लक्षण पण जाणनार अने कुदेवने परिहरनार शिष्य होवा जोइए, अन्यथा कुगुरुमा गुरुनी बुद्धि धारण करी भवपाशमां सपडाय माटेशिष्य मुगुरुना परीक्षक होय ते मुक्तिपद पामे.
" दहा." विधिए सदगुरु वंदता, निंदे अवगुण नीज;
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