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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७६ ) षड्वव्य स्वरूप. art आत्माने कर्म लाग्युंछे, तेथी अनादिकालथी आत्मानी शक्ति तिरोभावे वर्ते छे. जो आविर्भावरूपे शक्ति यह होय तो कर्मनुं कंइ जोरि नथी, माटे कर्मना योगे जीवनी शक्ति अवराइछे, जेम सूर्यने वादळां आच्छादन करेछे तो सूर्यना प्रकाशनुं आच्छादन थायछे, प्रकाश ढंकाइ जायछे, किंतु यदा वादळां बिखराइ जायछे त्यारे प्रकाश स्वच्छ पडेछे. एम आत्मा अने कर्म विषे जाणवुं. आत्मा सूर्य समान छे, अने कर्म वादळां समानछे, दृष्टांत एक देशी जाणवुं. प्रश्न- अरुपी आत्माना गुणोनो उपघातरूपी कर्मथी शी रीते यह शके ? उत्तर- ब्राह्मी औषधिरूपी, अरूपी बुद्धि वृद्धिमां उत्तेजकछे, मदिरा रूपी छतां ज्ञानीना अरूपी ज्ञाननुं आच्छादन करी ग्रथिल बनावेछे, तथा रीत्या आत्माना असंख्यात प्रदेशे लागेलां ज्ञाना वरणीयादिक कर्मरूपी अरूपी आत्मगुणोनी आविर्भावतानुं आच्छादन करेछे. विषयांतरथी निवृत्त थइ पुद्गल द्रव्यनुं स्वरूप कथतां अन्य प्रश्न करेछे. प्रश्न- पृथ्वी, पाणी, वायु विगेरेनी उत्पन्न कर्त्ता इश्वरछे, अने तमे सेने केम अन्य स्वरूपे कथोछो. उत्तर - पृथ्वी, पाणी, वायु विगेरेनो कर्त्ता इश्वर नथी. अनादि कालथी ते वस्तुओछे. इश्वर अरूपी निरंजनछे तेनाथी रूपी पृथ्वी आदि जगत् बनी शकतुं नथी, सर्व द्रव्य पोतपोताना स्वभावे वर्त्तेछे. पुद्गल द्रव्यमां जाणवानो स्वभाव नथी माटे जडछे, प्रत्येक परमाणुनां उत्पात, व्यय, अने ध्रुवपणुछे. वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शनी परावर्त्तना प्रत्येक परमाणुमां थायछे. पुद्गल द्रव्यमां स्वगुण, स्वधर्म, स्वपर्यायनी अस्ति For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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