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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन (३४५ ) बळी भव्य पुरुषोए समज के अहं अने ममपणुं पोताना आत्मामां नथी. ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रयीनो स्वामी हुंछु अन्य किंचित् वस्तु मारी नथी. आत्मिक धन तेज मारुछे, अन्य मारु नथी. आत्मस्वरूप जडमां कल्प तो जन्मनी वृध्धि थाय छे. अने आत्मस्वरूप आत्मामांज धारी निश्चय करे, स्वस्वभावमा रमे तो मोक्षनी प्राप्ति थायछे. यथा समाधिशतकआपभावना देहमें, देहंतरगति हेत ॥ आपबुद्धि जो आपमें, सोविदे पददेत ॥ १ ॥ भावार्थ-सारमां सार के आत्मना स्वद्रव्यादिक चतुष्टयमां आत्मत्वपणुं धारण करी एक चित्तंथी आत्मध्यान करे ते संसार चक्रमांथी छूटेछे. आत्मा पोतेज परमात्मरूप बनेछे. ते बतावे छे. समाधिशतक. भविशिवपददे आपकुं, आपहि सन्मुख होइ || तातें गुरु हे आतमा, अपनो ओर न कोइ ॥ १ ॥ आत्मा पोते पोताना सन्मुख थायछे, त्यारे पोते पोताने शिपद आपेछे. ते माटे निश्चय नयथी जोतां आत्मा पोते पोतानो गुरु छे, आत्मानो अन्य कोई गुरू नथी. निश्चयनयथी पोतानो गुरू आत्मा छे, पण तेनुं समजीने व्यवहारथी परमोपकारक सदगुरू आलंबन मूक नहि. पोतानी साध्यदशामां सद्गुरूनुं आलंबन पुष्टिनिमित्त कारणछे. सद्गुरूना आलंबनथी आत्मानी शुध्धपरिणति थाय छे. राग द्वेषमां परिणमनुं ते परपरिणति छे. बहिरात्मा परपरिणतिने पोतानी करी मानेछे. संयम अंगीकार करीने पण जे भिक्षु रागद्वेष परिणामयुत परपरिणतिमां राचेछे, मायेछे ते द्रव्यसाधु जाणवो. कां छेके For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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