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आत्मसिद्धि षट्स्थानक.
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उपादान कारणतणो, कदा विनाश न थाय, आलयनो जो नाशतो, वृत्ति क्यां प्रगटाय. आलयने ध्रुव मानीए, तो ते चेतन रूप; मानतां दोषज नथी, करवी समजी चूप. आलयने प्रवृत्तिमां, मानो जो यदि भेदः उपादान, कारणतणो, थाशे त्यां : विच्छेद. बने नहीं घट वस्तुथी, सूत्रतणो समुदायः कारण कार्य भिन्नता, त्यां शुं कार्यज थाय ३८६ चैत्रमैत्रइवभेद त्यां, कारण कार्यज भाव; स्मृतिभंग त्यां दोयछे, घंटे शुं युक्ति दाव ? ३८७ क्षणिक सन्तति ज्ञानमां; कारणकार्याभिद; मानो तो क्षणवादनो, धाशे निश्चय छेद. उत्तरज्ञानदशा विषे, पूर्व ज्ञान जो होय. स्थिरबुद्धि तेथी थइ, बुद्धि नाश क्यां जोय. ३८८ आलयनी जे स्थिरता, तेतो आतम मान; बन्धमोक्ष सहु तो घटे, चेतन गुणछे ज्ञान. पूर्वजन्मना स्मरणथी, पुनर्जन्मता सिद्ध; पुण्य पाप फल भोगवे, चेतन नित्य प्रसिद्ध ३९१ चेतन नित्यज होय तो, कर्म न लागे कोय; अनित्य माटे आतमा, क्षण क्षण नाशी होय. ३९२
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