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परमात्मदर्शन, ___ " परमात्माथि मुरुभक्त शिष्योनुं लक्षण कहेछे."
"दुहा." गुरु विनयी भक्ति घणी, श्रद्धा ए मन स्थिर; शिवपद अर्थी साहसी, मनमा आत गंभीर ॥५४॥
गुरुनो विनय मन वचन अने कायाथी करवामां तत्पर होय, यथाशक्ति भावथी अत्यंत भक्ति गुरुनी करनार होय, गुरुक्त तत्वने विषे जेनी श्रद्धा स्थिरपणे होय वा गुरुना द्वेला इावाळा तथा तेपना प्रतिपक्षी कुगुरुओ तथा कुभक्तो आई अवलं समजावे, गुरुना दोषो देखाडे कुयुक्तिथी गुरु महाराज कहेलां तत्त्वतुं खंडन करे, वळी एम कहे के-एनामां शो भलीवार छे, एतो कंह जाणतो नथी. कपटीछे, एम पोतानी मरजीमां आवे तेम बोले पण तेथी सुशिष्योनी गुरु उपरनी श्रद्धा जरा मात्र पण कमी थाय नहि, उलटुं सुवर्णने जेम जम गाळीए तेम तेम दिप्तिमंत थाय तेम गुरु भक्त शिष्योनी श्रदा उलटी वधती जाय, अने गुरुओनी संगतिथी श्रद्धा उठे तो पीतळ समान भक्तो जाणवा, एवा भक्तो ४ चार गतिमां भटक्या, भटकेछे, अने भटकशे, श्रद्धा वे प्रकारनी छ, हळदरना रंग समान अने अन्य मजीठ समान, हळदर समान श्रद्धानो कारण पाम्याथी नाश थायछे, माटे गुरु उपर मजीठना रंग समान श्रद्धा थवी जोइए वळी श्रद्धाना बे भेदछे. १ प्रशस्य श्रद्धा, अने २. अप्रशस्य श्रद्धा ते प्रत्येकना पण बे भेद छे, हलदर रंग समान, मजीठ रंग समान, वळी लौकिक गुरु अने लोकोत्तर गुरुनी श्रद्धा जाणवी.
वळी श्रद्धा के प्रकारनी छे, व्यवहार नय गुरु श्रद्धा,-व्यवहार नययी गुरु अनेक प्रकारनाछे, पापनी विद्या शिखये ते पाप
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