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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३५६ १ अधिकारी. स्वार्थिक जन संसारमा, नरक गति मेमान १६२ आत्म प्रशंसा दाखवे, करे घणो अभिमान, धर्म मर्म पामे नहीं, पापी जन नादान. परापकर्षे चित्त, परने देवे आळ; पापारंभ करे सुदा, देवे क्रोधे गाळ. पाप पुण्य समजे नहि, ले नदि सद्गुरु बोध; नास्तिकवादी जीवडा, करे शुं चेतन शोध. १६५ मत एकान्ते जे ग्रहे, ते अज्ञानी जीव १६४ भ्रमण करे भवमां अरे, ले नहि शाश्वत शिव. १६६ भावार्थ - अज्ञानी मोही जीव, असत्य वचन वदीने धनादिक माटे मनुष्योने छेतरेछे, चोरी, चाडी, चुगली करेछे. पापाचरणोथी पापकर्म ग्रहण करेछे, परजीवोनी निन्दा करेछे, परतुं अपमान करेछे. स्वार्थिक मनुष्य संसारमा अनेक जन्म दुःख परंपरा पामे छे, बाह्यदृष्टिधारकजीव स्वकीय प्रशंसा करेछे. अज्ञानी बाह्य धन सत्तादिकथी मनमां अत्यंताभिमान धारण करेछे, बाह्यदृष्टिजीव ज मां धर्म माने तेथी आत्मधर्मनो मर्म समजतो नथी. मनुष्यजन्म पामी जे आत्मतत्त्वनी शोध करतो नथी अने मोहक पदार्थोंमांज अहंममत्व धारण करेछे एवो जीव मोक्षथी पराङ्कख रहेछे, आत्मधर्मनी प्राप्ति दुर्लभछे, नवतत्त्वनुं सूक्ष्मज्ञान थया विना आत्म ज्ञान थतुं नथी, बाह्यजीव अन्यने नीचो पाडवा प्रयत्न करेछे. तेमज कृत्याकृत्य विवेक पराङ्कख थइ परजीवने आळ चढावेछे. परजडवस्तुमां ममत्वथीबंधाइ अनेक प्रकारना पापारंभ करेछे. क्रोधथी परने गाली देछे, अज्ञानी जीव पाप पुण्यमां समजतो नवी. For Private And Personal Use Only १६३
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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