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परमात्मदर्शन
वदे वेदान्ती मुक्ति स्वरूप, जाणो जग व्यापक विद्रयः घटेन व्यापक चैतनराय,त्यांशुंशिवनी आशरखाय५९ माने मुक्तिज आर्य समाज, भाडे पाम्यो जीवजराज; मुक्तिथी जीव पाछी फरे, मुक्ति एवीशुंदुःख हरे.४६० कर्म खम्याथी नहि संसार, कथं जीव पामे अवतार; जन्म मरण ज्यां वारंवार, शान्ति तेनी नहीं लगार.४६१ एक कह छे मुक्ति स्वरूप, मोटो अंधारानो कूप; जाकुंजे ईश्वरनी पास, चित्त घरो ईश्वर विश्वास-४६५ विश्वासी ईश्वरना दास, मुक्तिफोजमां भळतां खास; इशु भलो ईश्वरनो पुत्र, ते चलवे छे जगनुं सूत्र. ५६३ शरीरधारी मुक्तिज ज्याय, जन्म मरणना फेरा त्यांय; मुक्ति तेवीज कदीन होय, साक्षरवादी ग्रहे न कोय.४६५ अंधो वनमा फरतो फरे, पण चाली पहोंचे नाहे घरेः. ज्ञानचक्षु हृदये प्रगटाय, मुक्ति पन्थ त्यारे देखाय. ४६५ कोइक राता छे व्यवहार, ज्ञाने राता कोइकधार; एकएकर्नु खंडन करे, पक्षापक्षेज लडी मरे. ४६९ एकान्तनयोथी पक्षापक्ष, सत्यज माने बे नय दक्ष, नय एकेके दर्शन थयां, सापेक्षे ज्ञानिए ग्रह्मां. ४६७
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