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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६२ ) आत्मा कर्म करे छे. भ्रमण करेछे - जीव पोते कर्म करेछे अने तेनो भोक्ता पण पोते एकलोछे. कांछे के गाथा. एको करेइ कम्मं फलमवि तम्मिक एको जायइ मरइय, परलोयं एक्कजाइ ॥ १ ॥ समणुवह भावार्थ सुगम होवाथी लख्यो नथी, व्यवहारनये जीव कर्मनो कर्त्ता - शुद्धनिश्री स्वस्वरूपे रमतो जीव परनो एटले द्रव्यकर्म तथा भावकर्मनो कर्त्ता नथी. ज्ञानी शुद्ध आत्मस्वरूपमां रमतो कर्मनो नाश करेछे-जे आश्रवना हेतुओ छे ते ज्ञानीने संवररूपे परिणमे छे. कांछे केश्लोक. यथा प्रकारा यावंतः संसारावेश देतवः तावंतस्तद्विपर्यासाः निर्वाणावेश हेतवः कर्मना वे भेद छे. एक शुभाश्रव बीजो अशुभाश्रव. प्रथम शुभावने पुण्य कहे छे, अने अशुभाश्रवने श्रीजिनेंद्रदेव पाप तरीके कथेछे. पुण्यनी बेतालीस प्रकृतिछे अने तेम पापकर्मनी ८२ ब्यासी प्रकृतिछे. आत्माना शुभ परिणामथी पुण्य तथा अशुभ परिणामथी पापकर्म बंधायछे. रागद्वेषने भावकर्म कथेछे. रागद्वेषनो जय करवो ए शूरा पुरूषतुं कृत्य छे. रागद्वेष जीत्या विना देवपणुं कथातुं नथी. चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोकमां सर्व संसारी जीवोमां रागद्वेष व्यापी रह्योछे. महादेव बत्रीसीमां कहां छं के श्लोक. रागदेष महामलो, दुर्जितौ येन निर्जितौ; महादेवं तु तं मन्ये, शेषा वै नामधारकाः For Private And Personal Use Only १
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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