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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन. ( २६३ ) आ संसारमां दुर्जय रागद्वेषरूप महामल छे. तेवा महामल्लोने जे जीत्याछेतेने महादेव मानुंछं, बाकीना तो नामना महादेवछे. रागद्वेषने जीतवाथी वीतरागता मगटेछे, सत्यतात्त्विक सुख वीतंरागावस्थामांछे. रागदशाश्री दुःखछे अने वीतरागदशाथी सुखछे. एम सर्वज्ञ वीरपरमात्मा सारमां सार कथेछे. श्रीवीरमभुए ध्याननी तीक्ष्णताथी रागद्वेषनो क्षय कर्योछे. श्रीमसन्नचंद्र राजर्षिए रागद्वेष शत्रुनो आत्मध्यानथी क्षय कर्यो. रागद्वेषज संसारनुं मूळ छे. ज्ञान दर्शन अने चारित्रगुणनी क्षायिकभावे प्राप्ति रागद्वेषना क्षय विना नथी. द्वेष करतां पण रागनी सत्ता विशेषतः प्रवर्तेछे. कारण के जड वस्तुपर पण रागदशाथी ममत्वभाव उत्पन्न थायछे. आत्मिक ज्ञानयोगे मोहनीय कर्मनो उपशमभाव वा क्षयोपशमभाव वा क्षायिकभाव प्रगटेछे. ज्ञानावरणीय कर्मना, क्षयोपशमभाव वा क्षायिकभवना प्रादुर्भावने मोहनीय कर्म अटकावेछे. कर्मबंधमां पण रागद्वेषनी प्राधान्यता समयमां वर्णवीछे. चार घातकर्ममां पण मोहनीय कर्मनी सत्ता प्रवलपणे प्रवर्तेछे. देवगुरु धर्मनी श्रद्धा सम्यक्त्व पण मोहनीय कर्मना, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षायिकभावथी थायछे, मोहनीय कर्म पण द्विधा प्रवर्तेछे. दर्शन मोहनीयना क्षयथी दर्शन प्रगटेछे अने चारित्र मोहनीयना क्षयथी चारित्र प्रगटेछे, वेदनीयकर्म, आयुष्यकर्म, गोत्रकर्म अने नामकर्म एह चार कर्म अघातीयांछे, ए चार कर्ममां औदयिकभाव फक्त प्रवर्तेले. औदयिकभावे अघातियां चार कर्म भोगवीने आत्मा खेरवेछे. प्रत्येक भवमां द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावथी औदयिकभावनी जीव जीव प्रति भिन्नता वर्तेछे. इंद्रिय, गतिकायनी अपेक्षाए औदकिभाव जीव जीव प्रति असंख्यभेदे भिन्नतानी तारतम्यता मर्ते छे. औदयिकभावे चार अघातीयां कर्मनी कर्मबंधनमां निमित्त For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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