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(१०५)
परमात्मदर्शन आर्त रौद्र किरियाना त्याग, तेथी नहि शिवसुखनो लाग; मुक्तिप्रापक मनमा-जाण, तन्तु अमृत सुख खाण.४९५ आत्मज्ञानी छे नहि देह, चेतनधर्मी गुणगणगेह; अरिहंतादिक पदवी जेह, तेनो धर्ता चेतन एह. ४९६ जेजे इच्छे रुचि अनुसार, तेते फळ पामे निर्धार; भवाभिनंदी भवमां फरे, आत्मानंदी शर्मज वरे. ४९७ अव्यय निर्मळ चेतनगति, अनुपम मुक्ति स्त्रीनो पति; कर तुं तारो स्वयंप्रकाश, पोतानो धर तुं विश्वास.४९८ त्हारावण सारो जग कयो, त्हारावण निर्मळ को भयो; नहि नहि त्हारा कोय समान,धर निर्मळ पोतानुं ध्यान.९९ हारा निर्मळगुणनो लेश, पामंतां नाशेछे क्लेश; योगीजन तो देखे रहने, मोह न आवे तेनी कने.५०० योगी देखे आपोआप, तेने क्यांथी लागे पाप; ध्यानगुफामां योगी वास, कर्म न आवे तेनी पास.५०१ सौथी न्यारो योगी योग, नहि पामे ते मोही लोक; जागे योगीज उंघे सहु, शुं योगीनी वातज कहूं. ५०५ योगी साहं चेतनराय, बोले देखे ते कहेवाय; परमातमने जीवनो भेद, भागे नाशे भवनो खेद. ५०३
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