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परमात्मदर्शन.
( n) ब्रह्मस्वरूप, अने विष्णु पण ब्रह्मस्वरूप. सर्प पण ब्रह्मतो प्रत्येकने नमस्कार करवो जोइए. पण ब्रह्मवादी पण सर्वने ब्रह्मस्वरूप मानी भेदभाव राखेछे ते आकाश जेवडी मूल गणाग, माटे ब्रह्मने एक मानतां पूर्वोक्त दूषण प्राप्त थायछे. सम्यग्दृष्टि तेवोज अर्थ सम्यगपणे ग्रहण करेछे. आ सर्व जगत् अनंतजीवोथी परिपूर्ण व्याप्तछे, अने जे आ शरीरमा छे ते आत्माछे, अने आत्मा ज्ञानमयछे. दुनीयानी सर्व वस्तुओ ज्ञानमां विषयीभूत थायछे. अनंतज्ञेयनो ज्ञाता अनंत ज्ञानमय आत्माछे तेने ब्रह्म कहो वा चैतन्य कहो. वा परमात्मा कहो, नामभेद पण अर्थतो एकनो एकछे-सिद्ध परमात्माओ सदृश शरीरमा रहेलो आत्मा पण सर्व रूद्धिमयछे पण कर्मावरणथी सर्व रूद्धि तिरोभावेछे-आत्मा अजछे. अविनाशीछे. अनादि अनंत, अक्षय, अक्षर, अनक्षर, अचल, अटल, अमल, अगम्य, अरूपी, अकर्मा, अबंधक, अनुदय, अनुदरीक, अयोगी, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अवेदी, अछेदी, अलेपी, अखेदी, अकषाइ, अलेशी, अशरीरी, अणाहारी, अव्याबाध, अनवगाही, अगुरूलघुपरिणामी, अपाणी, अयोनि, असंसारी, अमर, अपर, अपरंपर, ज्ञानगुणापेक्षाए व्यापक अनाश्रित, अकंप, अनाश्रव, अशोकी, असंगी अनाहारी लोकालोक ज्ञायक, अनंत सुखमय, आदि गुणोथी बिराजमान प्रत्येक शरीरमा रहेला आत्माओ छे. किंतु कर्मनायोगे सर्व रूद्धि ढंकाणी छे, आ शरीरमां पण कर्मथी बंधाएल हे आत्मातुंछे. जेवा सिद्ध भगवान् छे तेवो तुं छे. एम सम्यग् अ ग्रही प्रयत्न करायतो मुक्तिपद पामी शकाय. पण सम्यग्ज्ञान विना संसारी जीवो मोहमायामां मस्तान थइ संसारमा परिभ्रमण करेछे. माटे सत्य तत्वनी प्राप्ति करवी. एज मोक्षमार्ग जाणवो. श्री सर्वज्ञ प्रभुए धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलाम्तिकाय, जीव द्रव्य
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