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आरमज्ञानिनु लक्षणे. याने आत्माथकी भिन्न जाणे ते पुरुषो तेनो त्याग करी शकेछ, संसार बलता अनि समान छे, संसारनां दरेक कार्यों उपाधिमय छ, संसारनी उपाधिमां वसतां आत्मानुं ध्यान थइ शकतुं नथी, माटे संसारी उपाधि त्यागी सद्गुरु उपदेश सांभळबो के जेथी वैराग्य प्राप्त थाय, अने वैराग्य प्राप्त थतां गुरु महाराजने पूछी आ. स्मान स्वरूप ओळखg, अने ते आत्मस्वरूप जाणतां तेनुं ध्यान धरतां कर्मनो नाश थायछे, माटे आत्मस्वरूपाभिलाषिओए त्याग अने वैराग्यनी प्राप्ति माटे प्रयत्न करवो.
__ " दुहा" योग्य होय ते आदरे, हठ कदाग्रह त्याग; वैराग्ये मन वासियुं, तस परमातम राग. ॥२२॥
भावार्थ-आत्मतत्त्व तथा तेनी प्राप्तिना अव्यभिचारी हेतुओने भव्यात्मा अंगीकार करे आत्मतत्त्व जेनाथी पामी शकाय नहीं एवां साधनोमा हठ कदाग्रहपणानी बुद्धिनो त्याग होय, सदगुरु महाराजा भव्यात्माओनी विचित्र प्रकृति जोइ जे साधनथी जेने फायदो थाय ते साधन व्रतादि तेने अंगीकार करावे, त्यारे अतिशय प्रेमभक्तिथी गुरु वाक्यने शिष्य अंगीकार करे, आत्मार्थी जीव भवभयथी बीक पामतो विचारे के-जो दुर्लभ मनुष्यावतार पाभी स्वछंदाचारीपणे वर्तीश तो अनंत भवभ्रमण करवां पडशे माटे गुरुनी आज्ञा मस्तके धारी मत कदाग्रहनो त्याग करे अने संसा. रनी अनित्यता विचारे-कर्मनुं स्वरूप सूक्ष्मदृष्टिथी विचारी सा. रांश ग्रहे के.-आ जगत्मा सम्यग्धर्मथी आत्महित छ, एम चिंतन करी जलपंकजवत् संसारभावी न्यारो रहे, तेवा भव्यात्माओने परमात्मपदनो राग याय किंतु संसारमा विष्टा शुकरवत् अहनिश
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