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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org परमात्मदर्शन. ( ९१ ) छे, राग द्वेषने आत्मा जीते तो आत्मा बंधू समानछे, सगा सहोदर बंधुनी ममताथी आपणा पोताना आत्माने राग द्वेष लाग्याछे ते दूर थवा नयी, माटे बीजाने बंधु तरीके मानवा ए तो संसार व्यवहारनी कल्पनाछे, व्यवहारिक कार्योंमां सहोदर बंधुनी जरुरछे, किंतु आत्मा परमात्मस्वरूपमयथाय तेमां तो आत्माज पोते बंधुछे, त्यां अन्यनुं कथं चालतुं नथी, रागद्वेषना प्रवाहमां आत्मा अशुद्ध परिणामयी वछे तो आत्मा पोते पोतानो शत्रुछे एम जाणवुं. आत्मा परभाव त्यागी स्वभावमां रमे तो आत्मानो कोई शत्रु नथी, आत्मा विना आत्मानो शत्रु अन्य कोइ व्यवहारथी कल्पना मात्र जाणवो. राग द्वेषे संसारमां राच माचनुं, तथा आत्मानी अज्ञानताथी मिथ्यात्व परिगतिए करी आत्माने परमात्मपद पामवामां आत्मा शत्रु भूतछे, यावत् जीव समकित पाम्यो नयो अने मिथ्यात्व भावे रमो परने पोतानुं मानेछे तावत् ताविक सुख पामी शकतो नयी, माटे आत्मिक अ संख्यातमदेशमां ध्यान देवु. 44 "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुहा. धर्माधर्माsकाशना, प्रदेश हान न लेश; पुद्गलना जे देश छे, दे अज्ञानी कूलेश. ८० धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायना प्रदेशयी आत्मगुणोनी हानि लेशमात्र पण थती नथी, पण पुद्गल स्कंधो अज्ञानीने क्लेश आपेछे धम्मा धम्मा गासा तिन्निवि ए ए अणाइया । अपज्जवसियाचेव सव्वद्धं तु वियाहिया. धर्म, अधर्म अने आकाश ए त्रग द्रव्य अनादि कालनांछे अने अनं छे १४ चउदराजलोक व्यापि धर्मास्तिकायछे, अधर्मास्तिकाय For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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