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( १९६ )
आत्मज्ञानभी कर्मनो नाश.
र्निश आर्तध्यान अने रौद्रध्यानमां आत्मा परिणमी अनेक प्रकरनां कर्म बांधेछे, अने बहिर्भावे राचीमाची अनेक जमनी वृद्धि करे छे.
जेम कुंभकार चक्रने एकवार वेग आपेछे तेथी ते चक्र चकरचकर घणी वखत सुधी भम्या करेछे तेम मनने आर्तध्यान, रौद्रध्यानना चितवननो एकवार वेग आप्याथी घणा वखत सुधी आर्तध्यानादिमां परिणमी रहेछे. रागद्वेषनो वेग आत्माने आपवाथी घणा काल सुधी आत्मा रागद्वेष वेग जोरे संसारमां परिभ्रमण करेछे, माटे अत्र सार ए ग्रहवानोछे के धर्मनो वेगजो आत्माने आपवामां आवे तो मुक्तिपद आत्मा पामे, तत्पद अर्थे सदाकाल एम भाव के देखाती वस्तुओमां हुं नथी. त्यारे मारे कंचन कामीनी केम मारी मानवी ? वा मनमां तेनुं चिंतन केम थवा देवु. कारण के ते वस्तुओ पोतानी नथी तो निरर्थक ते संबंधी विचार मारे केम करवो घंटे ? हुं एटले आत्मा जेमां नथी तेमां रागद्वेषथी. परिणमनुं मारे केम घटे कदापि जाणोके शरीर निर्वाह आदि अर्थे ते वस्तुओनुं ग्रहण करवुं पडे तोपण उदासीन भावे ग्रहण कर. अंतर्थी ते वस्तुओथी हुं. न्यारोछु एवा उपयोगनी स्थिरता रहूं. पण तेमां रागद्वेषथी परिणमनुं योग्य नथी. संसारनां कार्यों करूं पण तेमां लपटाउं नहीं एवी रीते वर्तनुं तेज आत्माने हितकारीछे, देखती वस्तुओ पुद्गलना पर्यायो जाणवा, पुद्गलनो सटण पडण, विध्वंसन स्वभावछे. पुद्गलना पर्यायो अनेक आकाररुपे देखायछे. अने पाछा विखरी जायछे. जेम संध्या समये पुद्गलना पर्यायो अनेक रंगरूपे परिणमेछे अने क्षणमां नष्ट थइ जायछे तेम चभुवी देखाती वस्तुओ विचित्र वर्ण गंध रस स्पर्शमय देखायछे अने वळी ते पाछी जुदा आकाररूपे परिणमी
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