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परमात्मदर्शन.
( ८७ )
थयो, ध्यानथी आत्मा अने परमात्मानो मेद टळेछे. कछे केआत्मनोहि परमात्मनियो भूद्भेद बुद्धि कृत एव विवादः ध्यानसंधि कृदमुंव्यपनीय द्रागभेदमनयोर्वितनोति. १
आत्मा अने परमात्मामां भेद बुद्धिनो विवाद हतो, अर्थात् मां पंडितना विवादरूप झघडा हता तेने ध्यानरूप संधि पाले ध्यानी पुरुषे जलदीथी बेनुं अभेदपणं करी आप्युं, ध्यानम आत्मा अने परमात्मानो अभेद थाय एटले ध्याननी सिद्धि जाणवी. ध्यानीने पौद्गलिक देश उपर क्यांथी ममता होय. भरनिंद्रामां शुन्यतानी पेठे ध्यानो पुरुष रागद्वेषशून्य थाय छे, खरं सुख ध्यानी पुरुष जाणेछे, शब्दज्ञानियो भले व्याकरण न्यायना वाक्पंडितपणाथी इदंभवति इदं न भवति इत्यादिथी भोळा लोकोनी आगळ भ्रमजाल रचे. किंतु आत्मिक सुख मळतुं नथी, अने निरर्थक बाह्याचारनिंदकी थइ मनुष्य जन्म हारेछे, एवा शब्द ज्ञानीओने स्वदेशनी ममता थवी मुश्केलछे, शब्दज्ञानियों खंडनमंडननी संकल्प जाळमां पडी आत्मिक सुख प्राप्त करता नथी, अने तेमनुं परदेश पर्यटन बंध थवानुं नथी; बाह्य क्रियाकांडनी खटपट मां शब्दज्ञानीयो मतभेद चलावी परस्पर राग द्वेष करेछे, तेमनुं कल्याण मत कदाग्रहत्वथी थवं दुर्लभछे. स्वदेश अने परदेशनुं ज्ञान नथी त्यां सुधी जीव मिथ्यात्वी जाणवो. आत्मतत्त्वनुं ज्ञान थाय त्यारे मनुष्य जन्म लेखे जाणवो, खरेखर आत्मज्ञ महाशयो आत्मानी तात्त्विक शांतताने पामेछे; उपर उपरनी हलदरना रंग समान जे शांतता ते अंते टकी शकती नथी. केटलाक जीवो उपस्थी बगनी पेठे कपटत्तिय शांत देखायछे, अने अंतरां कपटी भरेला होय छे, केटलाक जीवो उपरथी देखतां शांत जणाता नथी अने अंत खरेवर शांत होयछे, केटलाक जीवो उपरथी पण शांत होयछे अने
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