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आत्मज्ञान महता.
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राजाओने हुं महाभूप तीरके स्वीकारतो हतो पण हवे आत्मानुं स्वरुप ओळखतां मालुम पडयुं के इंद्र, चंद्र, नागेंद्र करतां पण आ शरीरमा व्यापक आत्मा मदाभूपछे. एनी प्रभुताइने कोइ पामी सके तेम नथी. स्त्री पुत्रादिकपर जेटली ममता थाय छे तेटली जो आत्मा उपर ममता थाय अने तेनुं ध्यान करवामां चित्त लागे तो आत्मा परमात्मस्वरूपने पामे. बहिरात्मिसाधुओने शिष्यो करवा उपर जेटली चाहनाछे तेटली जो आत्माना उपर चाहना थाय तो परमात्मपद अवश्य पामी शकाय. बाह्यधन तो मळेछे अने पापना उदये विणशी जायछे पण आत्मानुं अंतर्धन कदापि काळे नाश पामी शकतुं नथी. दुनीयाना प्रवाहमा जे तणायछे ते आत्मिक लक्ष्मी पामी शकता नथी-घणा भव कर्या, घणां शरीर छोड्यां, पौद्गलिक माया सर्व नाश पामी किंतु त्रणे कालमा आत्मा चेतन स्वभावेज वर्तेछे माटे आत्मा शाश्वतछे, वांचवा अगर कहेवा माथी नहीं पण ते अनुभवगम्यछे.
" हा." रझळ्यो हुँ परदेशमां, लहियां दुःख अनंत; शुभ देखी निजदेशने, शान्त थयो शिवकंत. ७७ ___ भावार्थ-पोताना आत्माना असंख्यात प्रदेश ते पोताना प्रदेश जाणवा अने पृथ्वीना जे देश ते पुद्गलास्तिकायछे, पुदगलास्तिकाय द्रव्य जडछे, पृथ्वीना प्रदेशोने पोताना प्रदेश मानी परदेशमा रझळ्यो, क्षुधा पिपसाए ताडनतर्जन छेदनभेदन आदि आत्माए अनंत दुःखो सहन कर्या, अने नाना प्रकारनां शरीरो धारण की पण दुःखनो अंत आव्यो नहीं, पण हवे सद्गुरुयोगे आत्मानुं स्वरूप जाणता पोतानो देश ओळख्यो अने आत्मा मुक्तिनो स्वामी शान्त
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