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साधुनी क्रिया. नहीं समजतापण लोकिक देवगुरुनो त्याग तेमज देवपूजा-गुरुवंदन जैन देरासरे जवु अन्यत्र नहीं, ए विगेरे ओघथी पळातो आचार पण धर्मनुं अंग जाणी त्यागवो नहीं, ज्ञानियोनी दृष्टिमां ते हलको छे, पण बालजीवोने तेथी चढवानुं छे, श्रावक कूलमा उत्पन्न थएलो माणस एटलं तो समजशे के अरे हुं ती जैन छु, मारो धर्म जैन छे, एम मोनी अन्य धर्म मानशे नहीं, तेम गुरुनो संग थतां समजतो यशे-कूलथी पण जैन धर्म पालनार, कूळमां उत्पन्न थनार विशेष धर्म समजशे नहीं तो पण मारो जैन धर्म छे एटलं पण धर्माभिमान आवशे माटे सापेक्षपणे विचारतां व्यवहारनयथी श्रावक कूलाचारमा प्रवत्त थनारने धर्मनो प्राप्तिछे, अन्य कूळमां उत्पन्न थनारने माटे नहीं,-एकांत वादीओ कूळाचारमा धर्म मानेछे तेना निषेधपर आ वचन छे. जाति संबंधी पण अंतर् अभिमान त्याग करवो. कोइ एम चिंतवे के आपणे वर्णावर्ण गण्याविना ढेड भंगी स्त्रीस्ति विगेरे सर्वनी साणे खावू पीवु, तेथी आपणो आत्मातो अभडातो नथी, त्यारे तेनी साये खावा पीवामां शो दोषछे ? आम कोइ सडेल भ्रष्ट बुद्धिथी कहे तेनो प्रत्युत्तर के जे जातोनी साथे खावापीवानो व्यवहार नथी तेनी साथे खावाथी जाति अभिमान टळ्यु कइ कहेवातुं नथी, पण अंतरां जाति अभिमान बिलकूल नहीं रहेवाथी अभिमान टळ्युं कहेवाय छे. जाति अभिमान ज्यांथी उत्पन्न थायछे त्यांथी तेनो नाश करवो जोइए. एज मुख्य परमार्थछे, इत्यादि घणुं कहेवानुं छे पण विस्तारभयथी लख्युं नथी, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनो विचार करी चालवू.
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