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परमात्मदर्शन,
पुद्गल सुख ते ऐंठवत्, दुनिया स्वप्न समान; शुद्धज्ञान ते आत्मनुं, बाकी वाचा ज्ञान. जेनुं ज्ञान थया थकी, शान्तदशा प्रगटाय; धर्म रह्यो त्या जाणीए, निश्चयथी सुखदाय. ३०३ नैगम संग्रह नय कला, त्रीजो नय व्यवहार; ऋजुत्र चोथो कह्मो, पञ्चमशब्द विचारसमभिरूढ छडो गणो, सप्तम एवंभूतः सप्तनयोथी धर्मरूप, सत्यज प्रगटे युक्त. सातनयोथी वस्तुरूप, परिपूर्ण परस्काय; नय एकान्तकदाग्रहे, मिथ्यात्वी कहेवाय. सातनयोना बोधथी, सम्यकू अनुभव साथ; आत्मतत्त्वने पारखी तरशे भवजल पाथ. ऋजुसूत्र आवेशथी, प्रगटयुं दर्शन बुद्ध; हे एकान्त एकनय, थाय नहि ते शुद्ध. जीवादिक नवतत्वपर, नय साते योजाय; सद्गुरु सेवा योगथी, सहजे ते बोधाय
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स्यादस्ति भंगज कह्यो, अनेकान्त मत कंद; अस्तित्व सह वस्तुमां, ज्ञानी एम वदन्त.
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