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भात्मतस्वसाध्यछे.
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(३४१ ) कोटिवर्षतुं स्वप्नपण, जागंतां लय थाय. आत्मज्ञान नद्योतथी, सहजरूप प्रगटाय. चेतनबुद्धि देहमां, जाणो देहाध्यास. छूटे देहाध्यासतो, कर्म कलंक विनाश. कर्ता नहि हुं कर्मनो, भोक्ता नहि हुंतास. शुद्धदशा प्रगटयाथकी, विघटे भवभयवास. २९५ चेतनधर्मे मोक्ष छे, तुंछे मोक्षस्वरूप; . भोगी रत्नत्रयितणो, क्षायिकशिवसुखभूप. २९६ सागरमांहि ल्हेरियो, उपजेने विणशाय; चेतनगुण जे ज्ञान छे, ज्ञेयपणे पलटाय. २९७ शुद्ध बुद्ध निर्मल प्रभु, स्वयंज्योति गुणधाम; चिदानन्द चेतन विभु, अनन्तगुणनुं ठाम. २९८ निश्चय अत्रज आवतां, साक्षर एक स्वरूप. योगत्रिकने संवरी, शिवनगरी :था भूप. २९९ रागादिक महावैरियो, ज्यां तेनो नहि गन्ध; आत्मलक्ष्यवृत्ति थतां, परपरिणति थइ बंध. ३०० देहनिष्ठ पण ध्यानथी, वर्ते देहातीत; वंदन वारंवार तास, त्रियोगे हो नित्य. ३०१
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