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परमात्मवर्णन.
(१९५९) अशुष्परिणतिथी कर्या, कर्मतणोछे अन्त; सहजशुद्धनिजधर्मथी, भाखेछे भगवन्त. सदा असंगी आतमा, निश्चयसत्ता धार; कर्ता भोक्ता कर्मनो, वर्ते ते व्यवहार. ४१२ जन्मजराने मृत्युनां, दुःखनु कारण कर्म शाताऽशाता कर्मथी, कर्मजालनो मर्म. ४१३ रंग्युं वीज कपास, लाक्षारस संयोग; रूमा लागी रक्तता, कर्मफलोनो भोग. ३११ कर्माष्टक नाशे यदा, तो चेतननी शुद्धि; आत्मस्वभावे आत्मनी, पामे तात्विकरूद्धि. ४१५
शिष्य नवाच, शंकां अनादिकालथी संगति, कर्म जीवनी जोय; नाश कहो शुं कर्मनो, कारण त्यांशुं होय. ४१६
सद्गुरु: उवाच-समाधान. कालअनादि परिणम्यो, चेतन मिथ्या भ्रान्त; छूटे चेतन खाणमां, रजः कनक दृष्टान्त. ४१७ ईश्वर इच्छायोगथी, सुख दुःख क्याथी होय. ईश्वरनी जो प्रेरणा, दोषी ईश्वर जोय; ११८
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