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भारमसिद्धि-घटस्थानक, ईश्वर इच्छा योगथी, कर्मतणोछे धंध; सुख दुःख तेथी संपजे, माटे जीव अबंध. ४०२
सद्गुरुः उवाच-समाधान. काल अनादि परिणम्यां, चेतन पुद्गल दोय; अशुद्धपरिणतियोगथी, कर्ता कर्मनो होय. ४०३ जीवप्रेरणा जो नहि, तर्हि ग्रहे को कर्म; जडमां कदी न प्रेरणा, भिन्नपणे बे धर्म- ४०४ माटे चेतनप्रेरणा, थातां कर्म ग्रहायः । परभाविक ते प्रेरणा, ग्रहीलचेष्टान्याय. ४०५ कर्ता कर्म न कर्मनो, जुओ विचारी चित्त; घटपट करे शुं प्रेरणा, समजो न्याय पवित्र. माटे कर्ता कर्मनो, चेतनछे व्यवहार; शुझस्वभाविक धर्मनो, कर्ता चेतन धार; ४०७ मलधर्म त्यागे नहीं, एवो जीव स्वभाव; अशुद्धपरिणतियोगथी, कर्ता कर्म विभाव. ४०८ परिणम्यां पयनीखे, भिन्न करेछे हंस; निजगुण रमतो हंस त्या, करे कर्मनो ध्वंस. १०९ चेतननो नहीं जाणीए, जेह विभाविक धर्म; स्वाभाविक निजधर्मछे, जाणो अनुभव मर्म. ११०
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