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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन. (११) यथी आत्मध्यान स्थिरतारूप समाधिमां लीन थायछे. कोइ यो ध्यानारुढ थतां तेना ध्यानमाथी मन भटकी जइ आडं अवलं पाल्यु जायछे छे तेने शिक्षा आपतां योगी कहेछेके श्लोक. मनः कुत्रोद्योगः सपदि वदमेगम्यपदवीं ॥ नरेवा नार्यावा गमनमुभयत्राप्यनुचितम् ॥ यतस्ते क्लीवत्वं प्रतिपदमहो हास्यजनकं ॥ जनस्तोमं मागा स्त्वमनुसरहि ब्रह्मपदवीम् ॥ १॥ हे मन तारी क्या जवानी इच्छाछे. तारे ज्या जवान होय ते मने कथन कर. नरमां जq छे के नारी विषयमा जवूछे. नर वा नारी ए बे ठेकाणे जवू पण अयोग्यछे. कारण के तारु क्लीवत्वपj छे माटे पदपदप्रति नर वा नारीना विषयमा तारु गमन हास्य उत्पन्न करावनारछे. पुल्लिंग वा स्त्री जातिमां तुं नपुंसक थइने जाय छे ते योग्य नथी. माटे मनुष्यना समूहमां मा भटक, तुं नपुंसक तेबुं ब्रह्म पण नपुंसकछे माटे तुं ब्रह्मपदने अनुसर अथवा ब्रह्मपदमां लीन था. वळीपरमात्मतत्त्व रमणतामां योगी लीन थइ समाधिभावने पामेछे. परमात्मतत्त्व आनंदरूपछे ते दर्शावेछे. परमानंद पंचविंशत्यां श्लोक. आनंदरूपं परमात्मतत्त्वं, समस्तसंकल्पविकल्पमुक्तं; स्वभावलीना निवसंतिनित्यं,जानाति योगी स्वयमेवतत्त्वं परमाल्हाद संपन्नं, रागद्वेषविवर्जितम् ॥ सोऽहंतुदेहमध्येऽस्मिन्, योजानातिसपडितः ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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