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परमात्मदर्शन. रहेछे, धर्मास्तिकायने कोइ उत्पन्न करनार नथी, मैटयां बलमा ज्यां न्यां धर्मास्तिकाय व्यापी रमुछे, तेनामा वर्ण गंध रस अने स्पर्श नथी. समये समये अनंता जीवोने तथा अनंत पुदगलमय परमाणुओने गमनमा साहाय्य आपछे. प्रदेशे प्रदेशे अनंता गण अने अनंता पर्यायछे. पोताना स्वरूपे धर्मास्तिकाय अस्तिरूपेछ. अने परस्वरूपे नास्तिले. प्रदेशे प्रदेशे अनंत स्वगुगनी अस्तिना समये समये परिणमी रहीछे, तेमन धर्मास्तिकायना प्रत्येक प्रदेशे अनंत पर द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, अने परभावनी नास्तिता परिणमीछे, तेमज प्रदेशे प्रदेशे अनंत पर्यायनी समये समये अस्तिना जागवी. तेमज धर्मास्तिकायना असंख्यात प्रदेशमा समये समये परद्रव्यना अनंत पयायनी नास्तिता परिणमी रहीछे, जे समयमां अनंत निजगुणनी अस्तिता तेन समपमा अनंत परगुगनी नास्तिता जाणवी. जो धर्मास्तिकायमा परद्रव्य, गुणपर्यायनी नास्तिता न रहे तो अन्य द्रव्यरूपे धर्मास्तिकाय परि गमे अने द्रव्य द्रव्यनो भेद रही शके नहीं, माटे स्वगुण स्वव्यनी अस्तिताना समयमां परद्रव्यनी नास्तिता मानवाथी प्रत्येक द्रव्य पोताना स्वरूो परिगमे, अस्तिपणुं धर्मासिकायमा रह्यं छे, ते पग अवक्तव्यछे, अने अनंत नास्तिपणुं रहुं छे, ते पण अवक्तव्यछे, एक शब्दनो उनार करतां असंख्याता समय कश्तीत थाय छे, तो एक समयमां स्थित अस्तिता अने नास्तितार्नु कथन अशक्यछे, ज्ञानवडे जाणी वैखरी भापाथी तेनुं स्वरूप कही शकातुं नधी, थोडं कही शकाय छे, जेटलं जाणवामां आवे तेटलुं वैखरी वाणीथी कही शकातुं नथी. माटे वक्तव्यावतव्यपणुं तेमां जाणवू. इत्यादि विचारतां सप्त भंगी उत्पन्न थाय छे, बळी धर्मास्तिकाय छे ते द्रव्यपणे नित्य छे,
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