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( २८ )
गुरुने मनस्कार.
रागादिक त्यागी शमे, करशे आतम ध्यान; सम्यग् ज्ञान क्रिया थकी, थाशे ते भगवान्. ॥१२॥ी
भावार्थ- जे भव्यात्माओ पंच महाव्रतादिनो आचार साधन साध्यानी सापेक्ष बुद्धिथी पाळे छे, अने राग रोषने जीने छे, तेनो माचार सफळ छे, अने ते दुनियामां जन्म्यो सफळ छे, क्रोध, मान, माया, लोभ, निंदादिनो जय करी शमभावे जे मुमुक्षुओ आत्मध्यान करशे, अने सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्रियानुं अवलंबन करशे ते पोते भगवान् थशे, कर्मपळना नाशथी आत्मा ते सिद्धात्मा थइ शके छे, किंतु अभव्यजीव मुक्तिपद पामी शकता नथी, कारणके अभव्यजीवोमां मुक्ति पामवानो स्वभाव नथी. अभव्य जीवोनुं उपादानकारण शुद्ध थइ शकतुं नथी, भव्यजीवोनुं उपादानकारण शुद्धसामग्री योगे थइ शके छे, संसारमां परिभ्रमण करवानुं मुख्यकारणराग अने द्वेषमाचकर्म छे, नोकषायसहचारि भावकर्ममां छे, क्रोध, मान, माया, अने लोभनो राग द्वेषमां अंतर्भाव छे, सिद्ध थता जीवोने राग द्वेष अनादि सान्त भांगे छे, अभव्यजीवने रागद्वेष अनादि अनंत भांगे छे, रागअने द्वेषनो क्षय संवरथी सर्वथा थाय छे, बहिरात्मभावे राग द्वेषनो क्षय थतो नथी, ज्यारे अंतरात्मपणुं माप्त थाय छे, त्यारे राग द्वेषनो क्षय थइ शके छे. कधुं छे केराग द्वेष के त्याग बिन, मुक्तिको पद नांहि; कोटि कोटि जप तप करे, सवे अकारज थाय ॥ १॥
रागद्वेषना क्षय विना मुक्तिपद प्राप्त धनुं नथी, राग द्वेषना त्याग विना कोटि कोटि जर तप करे तो पग लेखे थतुं नयी, प्रथम आत्मस्वरूप गुरुसमक्ष जाणवामां आवे, जडनुं यथातथ्य
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