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परमारमन. स्वरूप जाणवामां आवे पश्चात् जह अने आत्मानी भिवता मालुम परता विवेक प्रगटे, विवेकयी आत्मतत्वमादेय लक्ष्यमा आहे, अने अनीवतख हेय जाणे पश्चात् आत्मा विचारे के-मारामां अनंत मान, अनंत दर्शन, अनंत क्षायिक चारित्र, अनंत वीर्य छ, हुं स्वतंत्र छु, किंतु अनादिकाळथी राग द्वेषना योगे परतंत्र छु, राग द्वेष ए माई आत्मस्वरूप नथी, एम विषारतां सर्वत्र सर्व माणी उपर तथा वस्तुओ उपर समभाव प्रगटे, दुनीयानी सर्व वस्तुने शमभावे निरखे, राग द्वेषनो क्षप समभावे आत्मध्यामे प्रवर्ततां थाय अने सम्यग्ज्ञान अने क्रियाथी मुक्तिपद मळे माटे जे मुनिवरो रागादिकनो त्याग करी वायुनी पेठे अपतिबद्धताए विचरी स्वआत्महितमां लीन रहेशे, ते. क्षणिक आयुष्यनी सफलता करे छे.
को किरिया जड बोलता, तरशुं अम संसार; कर्मनाश किरिया थकी, सफलो अम आचार ॥१३॥ बहिर क्रियामां रावता, अंततत्त्व न भान; भूल्या भवमां भटकता, क्रियाजडी अज्ञान. ॥१४॥
भावार्थ-कोइक क्रियारूचिनीवो एम माने छेके-अमोक्रिया करवाथी संसार समुद्र तरीशु, अमो जे क्रियाकांडनो आचार आदरीये छीए ते कर्म नाश करशे, माटे किया सफल छे, जे जे क्रिया छे ते सफल छ, यथा दोहन, भक्ष गकिपा, ते प्रमाणे पडि. लेहण (प्रतिलेखन) आदि क्रियाओ पण कर्म नाश करवाथी सफल छ, ए प्रपाणे साध्य आत्मतत्सना अजाणपणे अंतरक्रिया ने ध्यानादिकनु सहा नहीं जाणवायी क्रियाजह पुरुषो भवा
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