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परमात्मदर्शन.
( १७ )
गुरुनो आत्मा ज्ञानवंत छे अने सेवक श्रोताजननो आत्मा निर्मल नयी तेने जगावनार गुरु छे, उपदेशक धर्मतीर्थ छे, माटे गुरुनेज मोढुं तीर्थ जाणवु, सुदर्शना चरित्रमां चारण सुनिए चंद्रगुप्त राजाने महाफळ जाणी उपदेश आप्पो छे, सद्गुरु समान त्रिभुवनमां मोढुं कोई तीर्थ नथी. सद्गुरु मोहुं तीर्थ छे एवं मनमां श्रद्धा थतां सम्यकत्वनी प्राप्ति थशे, हृदयमां गुरुनी मूर्ति स्थापन करी तेनुं एकाग्रचित्तथी भक्ति पूजन ध्यान करवायी आत्माने अलौकित शांति थशे अने दररोज एम ध्यान घरवायी पोताने साक्षात् सद्गुरु जाणे होयनी एम साक्षात् भासे थशे अने गुरु माहात्म्यथी अनुभव ज्ञाननो प्रवाह वहन थथे, अने दुर्गुणोनो अवश्य नाश यतां मन प्रसन्न थशे अने आत्मा सद्गु णधाम थशे.
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44 'दुहा. " सद्गुरु वण भव दुःखनो, परिहारक नहि कोय ॥ ते सद्गुरु नित्य वंदीए, जन्म सफलता होय ॥१०॥
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भावार्थ-भव दुःख अंतकारक सद्गुरु विना अन्य कोइ नथी, ते सद्गुरुने प्रतिदिन वंदन करवायी जन्मनी सार्थकता छे, घोर कर्म करनारा दुष्टजनो पण गुरुना उपदेशथी गुरुता पामी शारीरिक मानसिक दुःख संक्षय करी पंचमीगतिने पाम्या छे, पामे छे, अने पापशे.
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दुद्दा.
साधन साध्यापेक्षथी, जे पाळे आचार;
राग रोष मद जीतता, सफलो तस अवतार ॥११॥
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