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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन. सिद्धतारूप कार्यनो कर्ता पण आत्माछे. कर्ताः आत्मा ज्यारे कारणनीयोगवाइ पामे त्यारे कार्यनी सिद्धि नीपजावे. एकलो कर्ता कारण सामग्री विना कार्य करी शके नहीं एवी स्वभावता जाणवी. उपर प्रमाणे आत्मा परमात्मपद पामे तेमां जे जे कारणो जोइए. तेनुं यत्किंचित् स्वरूप दर्शाव्युं. शिष्य--हे सुगुरो ! पूर्वोक्त कारणोमांथी व्यवहार धर्मरूप केटलां कारण जाणवां. सुगुरु-हे शिष्य स्वस्थ चित्तथी सांभळ-जे कारणो कार्य सिधि थतां रहेतां नथी. अने कार्य सिद्धिमां अवश्य कारणी भूत छे, ते कारणोनी प्राप्तिने व्यवहार धर्म कहेछ. निमित्त कारणनी सेवना तथा असाधारण कारणनी प्रवर्तना पण व्यवहार धर्म कथायछे. नीचेना गुणस्थानकनुं छोडवू अने उपरमा गुणस्थानकनुं आदरयु ते शुद्धव्यवहार धर्म जाणवो. वळी साधुधर्म वा श्रावकधर्म पणव्यवहार नयथी धर्म कथायछे. व्यवहार धर्म कारणछे, अने निश्चय धर्म कार्यछे कारण अनेक छे अने कार्य एकछे. माटे असंख्ययोग जिनेश्वर भगवाने कथ्याछे. तेमां पण नवपदनी मुख्यता जाणवी. जेजे अंशे निरूपाधिपणुं तेते अंशे धर्मनी प्राप्ति जाणवी. शिष्य-मनुष्यगति विना आत्मा सिदतारूप कार्य अन्य गतिमा माप्त करी शके के नहीं. सुगुरु-मनुष्यगति विना सिद्धतारूप कार्यनी सिद्धि थती नथी. प्रथमतो एकेंद्रियमां अपेक्षाकारणरुप नरगति प्रथम संघयण नथी. तथा निमित्त कारण पण नथी. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय, मां अपेक्षा कारण नथी. पंचेंद्रियना चार भेदछे. प्रथम देवता ... समकिती होयछे तेमने क्षयोपशमभाव मतिज्ञान तथा श्रुत For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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