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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भास्ममा रमणता कर. मोह करे शुं जीवडा, समज समज तुं चित्त- ५ भोग रोगः सममानतो, स्वप्ने पण नहीं आश; अनित्य आ संसारमां, क्याथी तेनो वास. ६ दुर्लभ आत्मस्वरूपनी, वातो करवी सहेल; किंतु आत्म स्वरूपनी, प्राप्तिछे मुस्केल. ७ निंदा, आलस्य, असत्यादि दूषणो निवारी निःसंगी थइ आत्म तत्त्वनी खोज करनार आत्मतत्त्व पामी शकेले. आत्मतत्त्वनी वातो करवी सहेलछे पण आत्म तत्त्वनी प्राप्ति थवी मुश्केलछे. कोइ विरला प्राणी आत्मा उपर रुचि करेछे. ___आचेतन अज्ञानयोगे भ्रमित थइ कदापि चलित थइ जाय छे. एबुं आत्म स्वरुप भूली गयो तेथी परवस्तुमा मोह पाम्यो, अशुद्ध परिणत्तिथी औदारिका, वैक्रिय आहारक, तेजस, कार्मणादि शरीरो धारण करी तेना योगे ताडन तर्जन छेदन भेदनादिक दुःखो लयां, हवे जो तने सुखनी आशा थइ होय तो हे आत्मन् चेत. चेत समय चाल्या जायछे मनना मनोरथ मनमा रहेशे, सद्गुरु संगे रही आत्म स्वरूप समन अने तेना ध्यानमा रहेता आश्रयतुं दुरी करण थशे. अने अंतरं तत्त्वोपयोगे संवरनी प्राप्ति थशे तारुं स्वरूप तुं देखे एटले तारो मोक्ष थशे. श्री देवचंद्रजी पण कहेछे के " दुहा." तत्वते आत्म स्वरूपछे, शुद्ध धर्म पण तेह; परभावानुग चेतना, कर्म गेहछे एह. तजीपर परिणति रमणता, भज निज भाव विशुद्ध For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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