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शुतज्ञानस्वरूप.
बड़े त्यारे द्वादशांगी रूप श्रुत होयछे, अने ते तीर्थनो विच्छेद थवाथी ते श्रुतनो पण विच्छेद थायछे. तेथी ते सादि सपर्यवसित जाणवुं. महाविदेहमां तीर्थनो विच्छेद धुतनो पण विच्छेद थतो नयी थी त्यां अनादि अपर्यवसितत जाणवुं कालथी उत्सपिणि तथा अवसर्पिणीमां चोथे तथा पांचमे आरे श्रुतज्ञान होय अने छठे आरे विच्छेद थायछे तेथी सादि सपर्यवसित जाrg. महाविदेह क्षेत्रमां एवं कालचक्र नहीं होवाने लीधे त्यां श्रुत ज्ञान पण अनादि अपर्यवसित जाणवुं.
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भावथी - भव्यसिद्धि जीवने ज्यारे सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छे त्यारे आदि अने केवलज्ञाननी प्राप्ति थायछे त्यारे अंत होवाथी सादि सपर्यवसित श्रुतज्ञान जाणवुं.
११ अग्यारमुं गमिकत ते ज्यां सूत्रना सरखा आलावा आवे ते जाणवुं दृष्टिवाद सूत्रमां जाणवुं.
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१२ बार अगमिक श्रुत अणसरखा अक्षरोना आलावा होय ते जाणवु.
१३ तेरमुं अंग मविष्ट ते द्वादशांगीरूप जाणवु.
१४ चौदमुं अंग बाह्यश्रुत ते आवश्यक तथा दशवैकालिक जाबुं तथा श्रुतज्ञानना वीश भेद पण कर्मग्रंथ विगेरेथी जाणी लेवा.
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अवधिज्ञान स्वरूप.
अनुगामी, वर्धमान, प्रतिपाति, अप्रतिपति, हीयमान, अर्ने
नुगामी ए छ प्रकार गुण प्रत्यय अवधिज्ञानना छे. उक्तंच. नन्द्य
ध्ययने “ तं समासओ छव्विहं पन्नत्तं तंजहा आणुगामियं अणा
णुगामियं वद्रुमाणयं हीयमाणयं, पडिवाइ, अपतिनाह.
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