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(16)
गुरुतीर्थ.
उपर थाय तो आत्मा शिघ्र परमात्मपद पामे, भाव तीर्थ पोतानो आत्मा समजत्रो, अनंत गुग तेमां भर्या छे, जो तेनी यात्रा कोइ मुमुक्षु धारे तो अवश्य मुक्ति पद पामे. आत्मारूप प्रभुना दर्शनार्थम् जतां प्रथम चतुर्दश पगीयांरूप चौद गुग स्थानक उल्लंघतां क्षपक श्रेणिरूप दोरी झाली आगळ चढतां बारमा गुण्डागे चारघातीयां कर्मना संपथी आत्माना अ संख्यातमदेशरूप महेलमां जत्राय छे, अने तेमां विराजित परमात्मानां साक्षात् कैवल्यचमुथी दर्शन थाय छे, पश्चात् आत्मा परमात्मनां दर्शन करे छे, त्यारे अलौकिक स्वरूपवाळो बने छे, अने त्यांने त्यां रहे छे. पश्चात् अघातिक कर्म क्षपणथी परमात्मस्वरूप बनी स्वयमेव प्रकाशे छे. यावत् भावतीर्थनी यात्रा थर नथी तावद सांसारिक भ्रमणपंचमूलभूतरागद्वेषनी ग्रंथि छेदानी नथी माटे तेनी मातिन हेतु स्थावरतीर्थ अने जंगमतीर्थ छे. जंगमतीर्थनी सेवा भक्ति श्रद्धा, नमन, स्तुत्यादिद्वारा भावतीर्थ दर्शन थाय छे, यथा पोतानो आकार जेवो होय तेवो आदर्शमां जोवाथी भासे छे तथा जंगमतीर्थ स्वरूपगुरूमहाराजना आलंबनथी यादृक् आत्मानुं स्वरूप होय तादृक देखाय छे. आत्मानो प्रकाश सूर्य तथा चंद्रथी थतो नथी, किंतु स्वीय आत्मानो प्रकाश सद्गुरुद्वारा थाय छे, परपुद्गलसंगी आत्मा परभावी थइ भवभ्रमणामां भूल्यो, मोह मायामां झूल्यो, आत्मानी अनंत ऋद्धि डुल्यो, पण गुरुनी यात्रा करतां पोतानुं स्त्ररूप समजायुं, माटे गुरु समान अन्य तीर्थ स्वात्म निर्मळकारक नथी, गुरु तेज परम जंगमतीर्थ छे, गुरुनी सेवा तेज गंगा नदी जाणवी, गुरुनी कृपादृष्टि तेज मारी
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