SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwmarwarrrrrrrrrrrrr (१७८) आत्मज्ञानी कर्मनो नाश. यशोविजयजी उपाध्याय पण समाधि शतकमां कहेछे केलिंग देह आश्रित रहे, भवको कारण देह; तातें भव छेदे ननी, लिंग पक्षरत जेह. १ जाति लिंगके पक्षमे, जिनकू है दृढ राग; ताते भव छेदे नहीं, जाति पक्ष रति जेह. २ जाति लिंगना पक्षमा जेने दृढ राग छे ते भवान्त कदापि करी शकता नथी. आत्माने जाति नथी के लिंग नथी जेम स्वममां अनेक प्रकारनी जातियो तथा लिंगो धारण करायछे, अने ते जागीने जोतां कंइ भासतुं नथी, तेम जाति अने लिंगाध्यास पण ज्यारे आत्माभिमुख चेतना थायछे त्यारे स्वमवत् लागेछे. हुं पुरुष वा स्त्री नथी. आ मंत्रनो मनमा १००८ बार जाप जरा श्राद्ध राखीने जिज्ञासु कर, पछे तारा मनमां केवा प्रकारना विचारो आवेछे ते विचार अने पहेलांना विचारोमा केटलो फेर पडेछे ते विवेकथी विचार. एकवार आ मंत्रपयोग श्रद्धाथी जे अजमावशे तेने अनुभवनी मालुम पडशे, हुं चंपालाल, मनसुखलाल नथी एम अर्ध कलाक पर्यंत धारणा करवाथी प्रथमनी अवस्था अने चालती अवस्थाना विचारोमां एक मोटो भेद पडतो पोताने मालुम पडशे, अने आत्म धर्म प्राप्त करवानी जिज्ञासानो उद्भव थशे. शुं त्यारे जाति लिंग मानवु खोटुं छे, तो कोइ पाताने अमुक जातोवाळो कहीने बोलावे तो बोलवू नहीं ? वा कोइ कहे के तुं पुरुष छे के स्त्री छे ? त्यारे एम कहे के हुँ तो पुरुष वा स्त्री पण नथी. आम जो वर्तीए तो चाले केम ? तेना प्रत्युत्तरमा समजवाके-अंती जाति वा लिंगनो अध्यास धारण करवो नहीं ? व्यवहारथी जाति वा लिंगना व्यवहारो कराय छे तेम करवा, पण अंतर्थी पोताना For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy