________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मात्मस्वरूप.
माटे तेवा जीवो बहिर् दृष्टिपणाथी चिदानंद आत्मामां सदा रहेला धर्मने प्राप्त करी शकता नथी. जात्यभिमानीजीवनी अंतर्दृष्टि थती नथी, तेतोक्षणेक्षणे हुं ब्राह्मण छु, हुं क्षत्रीयछु, हुं बाणियोछु, छं एवी बुद्धि धारण करेछे, पण हुं ब्राह्मण नथी, हुं वणिक् नथी, हूं क्षत्रिय नथी, एवी बुद्धि धारण करी शकतो नथी, श्री यशोविजयजी उपाध्याय पण समाधिशतकमां कहेछे के
" दुहा." जाति देह आश्रित रहे, भवको कारण देह ।। तातें भव छेदे नहीं, जातिपक्षरति जेह ॥ १॥
इत्यादिकथी विचारता पण जात्यभिमानी आत्मधर्म साधी शकतो नथी, माटे आत्मधर्मार्थी मुमुक्षु जनोए आत्मानुं स्वरूप समजवू, अने बाह्य जात्याभिमानरूपभ्रमबुद्धि त्यागी अंतर्दष्टिथी आत्मधर्म साधवो, परमार्थ शिक्षा इत्येवं.
___ " दहा." लिंग देह उपर रहे, आतमथी छे भिन्न तेमां शुं रंगाइये, रंगातां दुःख दीन. १२८ वर्णाश्रमना भेदथी, माने जे मन धर्म;
सत्य धर्म ते नवि ग्रहे, बांधे उलटां कर्मः १२९ ___ भावार्थ-पुरुषलिंग वा स्त्रीलिंग आदि लिंग देहाश्रित छे, देह ज्यारे आत्माथी भिन्न छे, अलबत आत्मानी देह नथी त्यारे लिंग आत्मनु कहेवायज केम ? पुरुषादि त्रणे लिंगो आत्माने कर्मोपाधिना संबंधथीज कहेवाय छे, हुं पुरुष ए अभिमान मनुष्य धारण करतो मायान्ध बनी हुँ असंख्यपदेशी आत्मा एवो विवेक
For Private And Personal Use Only