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आत्मतत्व साध्यडे,
शिंका मोटी जीवनी, टाळो सद्गुरुदेव, मतिहीन हुं जीवछु, कापो कुमति देव
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सद्गुरुः नवाच उत्शंगुलवृत्ति त्यजी, ग्रहो सुयुक्ति दीप; समजो चेतन अस्तिता, यथाऽस्ति मौक्तिक छीप. ३५० पञ्चभूतथी भिन्नछे, अरूप निर्मल शुद्ध देहे व्याप्यो जीवछे. मळ्युं नदकमां दुध. हुं सुखी हुं दुःखी एम, बुद्धि देहनी नांय; मृत कलेवरमां कदी, जरा न चेष्टा त्यांय. कठीन शीतत्वादि गुण, पंचभूतना जोय, चैतन्यादि त्यां नहीं, सूक्ष्मपणे अवलोय. अरूप चेतन चक्षुथी, ग्रह्यो कदा नहि जाय; पुद्गलस्कंधो स्पर्शथी, ग्रह्मा सदा जोवाय. श्वासोश्वास ते स्पर्शथी, सदा अहो हवाय बाहिर जातो आवतो, ते चेतन शुं थाय. ज्ञातृताश्रय जीव छे, पुद्गल नहीं कदाय; नहीं तो घटपट वस्तुमां, ज्ञातृशक्ति ग्रहाय. मद्यांगे मदशक्तिवत्, पञ्चभूत संयोगः चैतन्यशक्ति उदूभवे, ते युक्ति पण फोक,
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