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परमात्मदर्शन.
( १२३ )
त्याग, गृहे गृहे भिक्षा मागवी, काम विकारने जीती ब्रह्मचर्य पा ळ आदि सर्व सहेलछे किंतु साधुने कपटनी त्याग करवो मुश्केलछे. सर्व व्रत, तप क्रियादि कपटथी दुषित थाय छे. जेम सुंदर निर्मल मणिने डायलागवाथी तेनी कांति मंद थायछे तेनी पेठे अत्र समजवु.
रसनुं लोलपीपं सुखे त्यागी शकाय, देह भूषग पण त्यागी शकाय. कामभोगादिने पग सुखे त्यागी शकाय पग कपटनो त्याग करवो घणो विकट छे. जेम जेम विद्वत्ता वृद्धि पामे तेम तेम आत्म उपयोगी शून्य मुनि कपटमा पोतानी विद्याने उपयोग करे छे कपटभाव त्यागवाथी सुख थायछे, कोइ प्राणी मान पूजानी लालचे उपरथी बाह्य चारित्र शुद्ध पाळे, पंचसमितिनो बाह्यथी खप करे, ग गुप्तिनेो बाह्ययी सारी रीते खप करे. उपरथी एवो वैराग्य जगावे के लोको तेना उपर फीदा फीदा था जाय पण अंतरमां आत्मानो उपयोग होय नहीं अने अभ्यंतर निर्मल परिनाम न होय पोताना गच्छनो मतनो पक्ष सबल करवानी लालसा बनी रही होय, आत्मा अने परमात्मानुं स्वरूप शुं छे ? तेनो तो विचार पण करे नहीं, व्याख्यान वाणीथी हजारो जीवोने रंजन करे, बोलवानी कला एव। होय के जंथी विचारा मुग्ध जीवोने वश करी दृष्टी रागीया करे, एवो साधु कपटट्टत्तिथी परमात्म स्वरुप पामी शकतो नथी. ज्यारे साधुनी पग आवी स्थीति छे तो अल्पज्ञ संसारना खाडामां पतित श्रावको भाग्ये कप
नो त्याग करी शके. कपट रुप काळो नाग जे भव्यना हृदयमां पर निंदा, स्त्रमहत्वता, परापकर्षरूप फणीवडे करी सहीत वसतो होय ते प्राणी दुःखनी परंपराने पामेछे. अल्पज्ञ पुरुषो कपटीयोना
पटने पारखी शकता नथी, जे मुनि बाह्य क्षणिक मान पूजा कीतिनी लालचे श्रावक आगळ ठीकठाक आचरण देखाडी रंजन
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