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परमात्मदर्शन.
(१८९) वृद्धि पामेछे, तेम तेम शरीरनी अंदर रहेला आत्म प्रदेशो पण तेटला शरीरमां व्याप्त थायछे, मोटा शरीरमा जीवपदेशो विस्तारपूर्वक रहेछ, नाना शरीरमां शरीरने व्यापी रहे तेवी रीते आत्मपदेशो रहेछे, असंख्यात प्रदेशनी व्यक्ति स्वरूप जीव जाणवो, जो के आत्मा शरीरादि परद्रव्यथी जुदोछे तोपण संसार अवस्थामां अनादि कर्म संबंधथी नाना प्रकारना विभाव भाव धारण करेछे ते विभाव भावोथी नवीन कर्मबंध थायछे, वळी ते बांचेलां कर्मोना उदयथी फरी एक देहथी देहान्तर धारण करेछे, अने तेम अशुद्धकारक चक्रथी संसारद्धि पामेछ, संसार अवस्थामां जीव कर्मसहित होय छे अने मोक्षदशामा कर्मरहित आत्मा सादि अनंतभंगें सदा समये समये अनंत सुख भोगवतो वर्तेछे, संसारी यद्यपि आत्माछे तोपण तेनी सत्ताथी अक्षरछे, तथा सत्तातः निर्विकल्प आत्मा जाणवो, विकल्प संकल्प मनना योगे थायछे, विकल्प संकल्प योगे राग द्वेषमा आत्मा परिणमेछे, हुं आत्मा ज्यारे विकल्प रहीतछं तो केम विकल्प संकल्प करूं ? परभावमा रमतां विकल्पादि उद्भवेछे, माटे परभावमा रमणता निवारवी, बाह्यदृष्टि योगे आत्मा परभावमा परिणमेछे माटे मुमुक्षु भव्यजनोए बाह्यदृष्टि प्रचार वारवा माटे अंतदृष्टिथी आत्मधर्म तरफ क्षणे क्षणे लक्ष्य आपवू, अंतर्दृष्टि थतां बाह्यवस्तुमा परिणमेलो मननो वेग अटकतां मन अंतरात्मा प्रति वळेछे, एम प्रतिदिन सतत दृढ अभ्यास थतां पोतानी ऋद्धिनो स्वयं अनुभव थायछे. कडुं छे के
श्लोक. बहिर्दृष्टि प्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः । अंतरेवावभासंते, स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः ॥१॥
महारमाने बहिदृष्टिना प्रचारो बंध थए छते पोताना आत्मामा
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