SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन. (२४ ) कर्मनो क्षय करतां आत्मिकधर्मनी आविर्भावता थायछे. काया पुद्गलछे, वचन पुद्गलछे, मनपुद्गलछे, धर्म तो निश्चययी चेतनगत जाणवो, आत्मामां धर्म रहेछे. ते आत्मिक धर्म आत्मस्वभावे स्थिर थतां प्रगटेछे. निश्चयथी आत्मा अरूपीछे, अने आत्मा. मां रहेलो धर्म पण अरूपीछे. असंख्य प्रदेश आत्माना छे, प्रतिप्रदेशे अनंत अनंत धर्म व्यापी रह्योछे, तात्त्विक आत्मिक धर्मथी अनंत सुखनी प्राप्ति थायछे. कर्मनो क्षय करी जे भव्यों सिद्धिपद पाम्याछे सेमने शुद्ध आविर्भावे आत्मिक धर्म प्रगव्योछे, जे जीवो कर्म सहीतछे तेमने तिरोभावे आत्मिक धर्म जाणवो. जे वस्तु मूळमां वस्तुतः सत्पणे नथी. तेनी उत्पत्ति थती नथी. कारण के नासतो विद्यतेभावो सारांश के-असत्नु उत्पन्न थवापणुं नथी. शिष्य-जेम असत्नुं उत्पन्न थवापणुं नथी. तेम सत् जे वस्तु त्रिकालमां वर्तती होय तेनी उत्पत्ति कहेवी ए पण अयुक्तछे.. कारण के-जे वस्तुनो उत्पाद थाय ते वस्तु प्रथम होय नहीं. यथा पट तेनो उत्पाद थयो तो ते प्रथम नहोतो. तेम जो आत्माना धर्मने सत् मानवामां आवे तो ते त्रिकालमा विद्यमानपणाथी तेनी उत्पत्ति थइ एम कडेवं असत्य ठरेछे अने जो आत्माना शुद्ध धर्मने असत् कहेवामां आवे तो तेनी उत्पत्ति असत्य ठरेछे माटे हे सुगुरो कृपा करी यथार्थ स्व रूप समजावशो. सुगुरू-रे शिष्य ! एकाग्र चित्तथी श्रवण कर. असत् पदार्थनी तो त्रिकालमां पण उत्पत्ति थती नथी, हवे सत्वस्तुनो विचार करीए. For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy