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भाविर्भाव भने तिरोभाव.
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गाथा. भावस्स पत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेवउप्पादो, गुण पजयेसु भावा, नुप्पाद वए पकुव्वंति ॥ १॥
भावार्थ-भावनो एटले सत्रूप पदार्थनो नाश नथी, अने निश्चयथी अभाव एटले असत्नो उत्पाद नथी, गुणपर्यायोमां भावो उत्पाद व्ययने करेछे.
सारांश के-द्रव्यार्थिकनयथी सत् षट्पदार्थो उपजता नथी, तेम विनाशताने पण पामता नथी.
अने जे त्रिकाल अविनाशी सत्पदार्थोमां उत्पाद व्यय थाय छे ते पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाथी गुणपर्यायोमां जाणवा.
हवे आत्मधर्मना सत्पणा संबंधी विचार करतां समजाशे के आत्मिक शुद्ध धर्मनुं सत्पणुं द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए अनादि सत्पणछे. जो के कर्मावरणथी आत्मिक शुद्धधर्मर्नु आच्छादन थयुंछे तोपण आत्मधर्मन द्रव्यार्थिकनयथी जोतां सत्पणुं टळ्युं नथी. अनादि कालथी कर्मावरणथी आत्मिक धर्म आच्छादनताने पाम्योछे एटले ते तिरोभावे सत्पणे वर्तेछे, आत्मिक शुद्ध धर्मनुं सत्पणुं वे प्रकारे छे. संसारदशामां तिरोभावे सत्पणुं अने सिद्धावस्थामां आविर्भावे सत्पणुं एम प्रकारे जाणवू. अनादि कालथी जीवनी साथे कर्मनो संबंधछे अने ते कर्मना संबंधे आत्मिक शुद्ध धर्म ढंकायोछे. ते ज्यारे कर्मनो नाश थायछे त्यारे आत्मिक शुद्ध धर्म प्रगटपणे प्रकाशेछे, हवे सत्स्वरूप आत्मिक धर्मनो उत्पाद केवी रीते थायछे ते समजावेछे. तिरोभावपणे वर्ततो आत्मिक धर्म छे तेनो आविर्भाव थयो. तेनी अपेक्षाए उत्पत्ति समजवी सारांश के-सत्स्वरूप जे आत्मिक शुद्ध धर्मनो कर्मावरणथी तिरोभाव थयो हतो. ते सत्स्वरूप मात्तिक शुद्ध धर्मनो कर्मनाशथी आविर्भाव थयो-तिरोभावनो जे
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