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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १२ ) अनेकान्ततस्व परपरिणतिनां द्वार रोकेछे. आत्माना गुण पर्यायतुं चितवन करेछे. पोताना आत्मामां अनंतरुद्धि शोधेछे. उज्ज्वल ध्यान ध्यावेछे, अने ज्ञानीओ मनमां थता अनेक संकल्पविकल्पो दूर करी आत्मस्वभामां मन रहेछे, प्रतिदिन उच्चास्थितिने भोगवे छे. सहज शांतिथी तुं तास्विक सुख ते प्राप्त करी शकेछे. मननी थती चंचलतानो त्याग करवो. मनसंबंधी प्रथम घणुं कहेवामां आव्यु॑छे. तेथी अत्र विशेष वर्णन कर योग्य नथी. तोपण प्रसंगवशात् कहेवानुं के मन चंचल अने अस्थिरछे ते ज्यां जाय त्यांथी पार्छु वाळीने आ मानी साधे वश कर. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन ज्यां सुधी स्थिर रहे नहीं त्यां सुधी शास्त्रोक्तक्रिया जेटली करीए तेटली सफल थाय नहि. श्रीयशोविजयजी उपाध्याय कहे छेके श्लोक. या निश्चयैकलीनानां, क्रिया नातिप्रयोजना | व्यवहार दशास्थानां ताएवाति गुणावहाः ॥ १ ॥ भावार्थ - जेनुं मन निश्रयमां लीनछे. तेने क्रियानुं प्रयोजन नथी. व्यवहार दशावाळाने क्रिया अति गुणकारी छे. मन वश कवाथी बंधातां कर्म अटकेछे, ज्ञानी थइने फरता एवा पुरुषोथी पण मन जीतातुं नथी. अभ्यासथी मन जीतायछे, महा अनुभवी योगी ओना शिष्यो मन वश करी शकेछे. पुस्तक, पोथी, पुराण, वांचवाथी पण जे मन वश थतुं नथी, ते मन सुगुरु महाराजनी गुप्त अर्पेली कुंची थी धीरे धीरे वश थाय छे. पुस्तक सिद्धांतमां लखेला विषयोने जाणी सुगुरुए परिणामिकी बुद्धियी जे अनुभव मे .. यो होय ते शिष्यों के जे गुरुना सदाने माटे विश्वासी होयछे & तेने मछे, माटे सुगुरुनुं शरण करी आत्मिक धर्मनी प्राप्ति करवी. For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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