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परमात्मदर्शन,
( १५७)
ग्रमी उत्पत्ति थायछे. मारा जेवो कोण विद्वानछे ? सभाषां मने कोण जीतनारछे ? इत्यादि अभिमानना आवेशमां सपडाइ जवायछे. माटे व्याकरण शास्त्र भणीने पण आत्मच जिज्ञासु थर्बु. एज परमोपदेश रहस्य छे, आत्मतत्व जाणतां रागद्वेष क्रोध मान माया लोभ विगेरेनो नाश थायछे, वैरविरोध कदाग्रहनो आत्मतत्त्व जाणतां नाश थायछे. जेना अज्ञानथी संसारनी मायामां लपटावानुं थयुं अने जेना ज्ञानथी अनंतकाल पर्यंत चतुर्गत्यात्मक संसारमां जडवत् स्वचेतना नष्ट प्रायः थइ परिभ्रमण करवुं पड्युं तेनुं जो ज्ञान थाय तो संसारनी उपाधिथी मुक्तज थाय अने अत्यभूत अनहद शुद्ध अखंड निर्मल शाश्वत आत्मसुख अनुभवी शकाय पोतानुं ज्यां अज्ञान त्यां रागद्वेष अने पोतानुं ज्ञान थतां सूर्योदयधी अंधकार जेम स्वतः नाश पामेछे तेम रागद्वेष स्वतः नाश पामे छे.
अन्य दर्शनियो पण आत्मतत्व नुं गान करेछे ते नीचे प्रमाणे छे. फकीर फकीर क्या कहो, फकीर जगत्का पीर; फकीरसें तो ढूंढ निकाला, पूर्ण रूप अमीर. मन मारे तन वश करे, सोधे सकल शरीर; दया धर्मकी कफनी पहरे, आप रूप फकीर. वेद वेद शुं कहो, वेद छे धर्म तारो; वेदथी वस्तु छे न्यारी, अखंड तरखलो मारो - कुवा देखी तळाव देखा, न्हाया देवकी कुंड; गोळकी गंगडीके उपर, मख्खीकी बहोत हे झुंड, ४ चल चल बोलो मत, खोलो पडदा अपना;
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