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( १५६ )
मन:पर्ययज्ञानस्वरूप.
अने जंतुं ज्योतिषिना उपरीतल लगे तीच्छु अढीद्वीप के समुद्र पनर कर्मभूमि त्रीश अकर्मभूमी अने छप्पन्न अन्तरद्वीपने विषे संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्ताना मनोगत भाव जाणे देखे अने विपुलमति तेहिज क्षेत्र अढी अंगुले अधिक देखे अने विशुद्ध देखे. कालयकी जघन्यपणे जुमति पल्योपमनो असंख्यातमो भाग अने उत्कटपणे अतीत अनागत जाणे देखे. अने विपुलमति तेथी अधिक अने विश्वतर जाणे देखे. भावयकी रुजुमति अनंताभाव जाणे देखे. अने विषुलमति तेथी अधिक जाणे देखे.
केवलज्ञानस्वरूप.
केवलज्ञान उत्पन्न थतांग समकाले सर्व पदार्थोंना द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव जाण्यामां आवी जायछे, तथा दीठामां आवी जायछे, माटे केवलज्ञान एक प्रकारनुं छे.
आत्मानुंछे, केवलज्ञानमां मतिज्ञानादिनो अंतर्भाव थाय छे, आत्मज्ञानी समकिती मुनिने शुद्ध ज्ञाननी प्राप्ति थायछे.
आत्मस्वरूपना उपयोग विना जे संसारमा चालेछै तेनो तिल पीलक यंत्र पमनी पेठे संसारनो पार आवतो नथी.
'काव्यना नवरस ज्ञानयी राचो अने लाखो काव्य करो किंतु आत्मपदना उपयोग विना अन्य सर्व राखमां घृत सींचननी पेठे निष्फळ जाणवुं तर्कशास्त्र पण आत्मतत्वना उपयोग विना मिथ्याभावे परिणमेलं नरकादिक गति भ्रमण हेतुभूतछे. व्याकरण शास्त्रथी पगं आत्मपद भिन्न छे.
सारांश - व्याकरण शास्त्र भगतां छतां पण जो आत्मानी ओळखण थइ नहीं तो तेथी शुं धर्यु ? अलबत आत्मतत्व ज्ञानम व्याकरण हेतुभूतछे पण आत्मतत्वना रहता उपर दोराय तो लेखे थायः व्याकरण भणीने वादविवाद मिथ्या करवाथी वैरविरोध क्ले
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