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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (308) आत्मज्ञान महसा. ते मिष्टानां राचे माचेछे तेने पुद्गल अॅठ चुंथनार जाणवो. बाह्य स्त्री भोगवानुं पञ्चरुखाण कर्युछे, पण अंतरमां स्त्री भोगववानी लालसा बनी रहीछे तो ते स्त्री भोगवनारज जाणवो. जो एम न मानीये तो घणा दोषो आवे. प्रश्न- कोइ बहुचराजीनो फातडो ( पुरुष पण स्त्रीनो वेष पहेरनार ) छे ते स्त्री काया करी भोगवतो नथी तो शुं ते ब्रह्मचारी कवाय के नहीं ? उत्तर - जो फातडाना मनमां स्त्री भोगववानी इच्छा बनी रहीछे तो ते व्यभिचारी जाणवो. कारण के रागथी कर्म बंधायछे, ते राग तो मनमां स्त्री उपर बनी रह्योछे माटे ऋजुसूत्र नयना मते व्यभिचारी जाणवो. प्रश्न- कोइ ठेकाणे एम को छे के मन जाय तो जाने दो, मत जाने दो शरीरः बिन चढावी कामठी, क्युं लगेगा तीर. १ आ उपरथी सिद्ध थायछे के मन कदापि आई अवलं जाय तो हरकत नथी किंतु शरीर जवा देशो नहीं, कारण के शरीरथी कर्म बंधायछे, माटे शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळे तो शुं ब्रह्मचर्य का नहीं ? उत्तर - ए कथननो सार ए छे के मनमां कदापि स्त्री भोगववानी इच्छा थइ पण हे भव्य शरीरथी स्त्री भोगवीश नहीं, कारण के तेथी एक तो कर्मबंध, ताडन तर्जन, निंदा, अवहेलनादि विशेष दोषो प्राप्त थशे, ते जणाववाने माटे अने वळी जाणवु - मनयोगी साधे काययोग भळे तो विशेष कर्मबंध थाय, तेथी एम शिक्षा वाक्य लख्युंछे. प्रश्न - कोइ माणसे मनमां एम चितव्यं के मारे विष खा अने अन्य मनुष्ये विष भक्षण कर्यु, ए वे मध्ये कोने वधारे हानि For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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