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परमात्मदर्शन. उत्तर-कर्म बंधननी मूळ सत्ता जे रागद्वेषछे तेनो क्षय करवायी
कर्मनो अंत आवेछे. मतिश्रुतज्ञानना क्षयोपशमभावे कोइक भव्यजीव षड्द्रव्यने जाणी जीवद्रव्यने अन्य पंचद्रव्यथी भिन्न जाणीसम्यक् शुद्ध बोधथी आत्मध्यानमां मवर्ते अने रागदशाना हेतुओने त्यागी संयम आदरी निश्चयथी स्वस्वभाव स्वगुण स्थिरतारूप चारित्रमा उपयोगथी वर्ते तो जीव कर्मनो सय फरेछे. अने तीर्थंकरोक्त परमपदनी प्राप्ति करेछे. अनंत जीवो कर्मनो संक्षय करी परमपद पाम्या अने पामशे. एम श्री प्रवचन वदेछे.
जे भव्यो वीतरागना पंथने चाहेछे ते भव्यो रागद्वेषनो क्षय करी ते पदने पामेछे अने पामशे. कर्मनो ग्रहण कर्ता पण जीवछे अने तेनो नाशकर्ता पण जीवछे. ___ परमां रागद्वेषनी परिणतिथी कर्मबंधन अने स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल अने स्वभावथी आत्मगुणमा प्रवृत्ति करवाथी कमनो नाश थायछे. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगथी कर्मबंधन थायछे. अनादि काळथी जीव संसारमा परिभ्रमण करेछे तेनुं कारण कर्म जाणवू. भेदज्ञान थवाथी आत्मा अने परनो भेद थायछे. अने भेदज्ञानथी समकित प्रगटेछे. ज्ञानभाव विना मोहोदयतानो नाश थतो नथी. कयुं छे के,
श्लोकः ज्ञानेन भिद्यते कर्म, छिचंते सर्व संशयाः आत्मीयध्यानतो मुक्ति, रित्येवं कथितं जिनैः॥९॥
ज्ञानथी कर्मनो नाश थायछे. अने सर्व संशयो छेदायछे अने आत्मध्यान पण ज्ञान विना थतुं नथी. माटे ज्ञानथी आत्मध्यान करता मुक्तिनी प्राप्ति श्रीजिनेश्वरोए कथीछे. ज्ञानथी वैरण्य
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