SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन. ( ४७ ) विना स्वयमेव शास्त्र बांचे तो पण यथायोग्य तत्व तेना हृदयमां परिणमे नहीं, अने विपरीत परिणमे तो अपथ्यसेवननी इव उपदेश निष्फल थाय. परमार्थथी जोतां तारक बुद्धिथी गुरुराज उपदेश अर्पेछे, ते उपदेश विनयथी अति हर्षे श्रवण करी आदरवा योग्य आदरो, अने त्याज्यने त्यागो. सुगुरुमां गुरुबुद्धि थया विना उपदेश कंड असर करी शक्शे नहीं, ए निश्चय जाणवुं. अने गुरुए जिज्ञासु अने श्रद्धाळुने उपदेश आपवो, पात्र विना उपदेश लागतो नथी. अज्ञानी मूढ मत कदाग्रही कुगुरुओनी संगतिथी जे लोकोनी बुद्धि विपरीतपणे परिणमीछे, तेमने उपदेशथी असर क्वचित् थाय छे, खारी भूमिमां पतितजलनी जेम निष्फळताछे, तेम खल भवाभिनंदी जीवोने उपदेशनी पण निष्फळताछे, जेनां नीचे लख्या प्रमाणे लक्षण होय तेने उपदेश देवो योग्य छे. १ संसारनी अनित्यताए वासित चित्त होय. २ हुं कोण? क्यांची आव्यो ? वयां जश? शुं मारे कर्तव्यछे ? ३ हुं ते कोण ? हुं अने मारुं ते शुं ? ए जाणतो होय अथवा जाणवानी जिज्ञासा होय. ४ भवनो भय लागे एटले जन्म जरा मृत्युधी व्याप्त संसार बळताअनि समान छे तेमां पडीश तो वळी मरीश एवो जेने भय होय. ५ गुरु महाराजनी वाणी उपर पूर्ण विश्वास होय तेप प्रीति होय. ६. सत्य अने असत्यने समजी शकतो होय अने कद्राग्रहीन होय. ७ गुरु महाराजना कथनानुसार प्रवर्तनार होय. For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy