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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५८ ) आत्मा. जायछे अने ते अनुभवमां आवे छे. कर्मनी प्रकृतिनुं स्वरूप निग्रंथ प्रवचनमां सूक्ष्मपणे वर्णन कर्युछे: तेवुंवर्णन अन्य दर्शनमां ते प्रमाणे परिपूर्ण पण नथी. कोइ कर्मने किस्मत कहेछे, कोइ कर्मने प्रकृति कहेछे, पण कर्मनुं अस्तित्व मान्याविना छूटको थतो नथी. - श्लोक. कृतकर्मक्षय नास्ति, कल्पकोटीशतैरपि ॥ अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभं ॥ १ ॥ कृतकर्मनो क्षय नथी. कोटीकल्पशतोए पण कर्म अवश्य शुभाशुभ भोगववुं पडेछे, जन्मजरा अने मृत्यु पण कर्मथी थायछे. चोराशी लाख जीवयोनिगां अवतरकुं पण कर्मथी थायछे. एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेंद्रियना अवतार पण कर्मथी थायछे, कर्म अनेक प्रकारेछे. कर्मना मूळ आठ भेदछे. तेनी उत्तर प्रकृति एकशतअठावनछे. देवगति, मनुष्यगति, तिर्यचगति, नारकगति, ए चार गतिमां अवतार पण शुभाशुभ कर्मथी छे कछे के गाथा. जंजेण कयंकम्मं, पुव्वभवे इदभवे वसंतेणं ॥ तं तेण वेइअव्वं, निमित्तमित्तो परो होइ ॥ १ ॥ जे जीवे पूर्वभवमां तथा आभवमां वसतां जे कर्म कर्याछे ते कर्म ते जीवे भोगववा योग्यछे. सुखदुःखमां परजीव तो निमित्त मात्रछे. कर्मनो कर्त्ता पण जीवछे तेम कर्मनो भोक्ता पण जीवछे. देखो सूडांगसूत्र - सम्मतितर्कमां परभावमां रमतो जीव परनो कर्त्ता तथा भोक्ता बनेलोछे-केटलाक कर्म भोगवीने खेरवेछे. अने जीव d. coin कर्म नव ग्रहण करेछे- एम अनादि काळधी जीव कर्मने ग्रहण करतो तथा कर्मने खंडतो वर्तेछे, मातानुं रुधिर अने पुरुषना For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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