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(१०) रागद्वेषना विचारी परिहरवा. द्वेषरूपी जन्द आत्माने वळग्यो छतो अनेक प्रकारनां तोफान करे छे अने आत्मानु भान भुलावेछे, चूडेल अने जन्दने कोइ महा उस्ताद मंत्र वादी काढेछे तेम आत्माने लागेला रागरूपी चुडेल अने द्वेषरूप जन्द ते उस्ताद गीतार्थ गुरुना उपदेशरूप मंत्रथी दूर थायछे त्यारे आत्मा अत्यंत सुखी थायछे आ ठेकाणे शिष्यना आस्माभां रहेला रागद्वेषने काढवामां गुरु बलवान् निमित्त कारण जाणवा, अने उपादन कारण तो शिष्यनाआत्मानी शुद्ध परिणति जाणवी. आत्मानी शुद्ध परिणति थाय त्यारे आत्मा निर्मळ पदने पामेछे, निश्चय नयथी कहेवातुं जे पोतानुं शुद्ध स्वरूप, तन्मय आत्मा बनतां लोक अने अलोक तेना केवलज्ञानमा प्रकाशेछे. ज्ञानावरणीय कर्म नाश पामेछे त्यारे अनंतज्ञान उत्पन्न थायछे. प्रश्न-ज्ञानावरणीय कर्म क्या रहेतुं हशे ? अने तेनुं ग्रहण शाथी
यतुं हशे? प्रत्युत्तर-ज्ञान- जे आच्छादन करे ते ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञानना
पंच प्रकारछे पंच प्रकारचं ज्ञान आच्छादन करे तेथी ज्ञानाबरणीय कर्म पण पंच प्रकारनुं जाणवू. पुदूगलना स्कंधोने आत्मा अशुद्ध परिणतियोगे ज्ञान- आच्छादन करे तेवा रूपे पोताना असंख्य प्रदेशोनी साथे क्षीर नीरनी पेठे परिणमावे ए उपरथी स्पष्ट समजाशे के क्षीर नीरना मळवाना संबंधनी पेठे ज्ञानावरणीय कर्म आत्माना प्रदेशोनी साये रघुछे अने ते ज्ञानावरणीय कर्मनुं ग्रहण अज्ञानयोगे अशुद्धपरिणतिथी ग्रहण थायछे.
जेम सूर्यनां किरणोनो प्रकाश वादळांना आच्छादननी अवराय छे, तेम आत्मानुं सूर्य सदृश जे ज्ञान ते ज्ञानावरणीय कर्मथी अवरायछे. तेथी आत्मज्ञान स्वपर प्रकाशकरूप कार्य करी शकतुं नथी.
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