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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ५४ ) www.kobatirth.org गुरुमी गुरुता. 46 दुद्दा. "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलधि भरती ओटमांही, मत्स्यो आकुल थाय; तीरे आवे प्राण नाश, गच्छतणो ए न्याय. शरीरपर ममता नहीं, करे शुं तेने देह; गच्छ वस्यो व्यवहारथी, अंतर्गुण गण गेह. ४५ ४६ भावार्थ- समुद्रमां ज्यारे भरती ओट आवेछे, त्यारे जलप्रवाइना जोरथी मत्स्यो आकुल व्याकुल थायछे, तेमांथी कोइ कंटाळीने कांठे आवेछे, भरती उतरी जातां जल विना तरंफडी मरण पामेछे, वा धीवरो तेने पकडी लेखे, अने दुःखभागी थायछे, तेम गच्छ सिंघाड़ामां वसतो कोइ मुनि, आवी केवल आत्मनी बात सांभळी एकाकी विचरेछे, तो ते आत्महित करी शकतो नथी, माटे गच्छमांहीं वसीने आत्मसाधन करवुं, वैरागी, त्यागी गीतार्थ ज्ञांनी पोतानी योग्यताथी आत्मस्वरूपना ध्यान माटे एकल विहारी थाय तेनो एकांत निषेध नथी. For Private And Personal Use Only जे मुनिवरोने शरीरपरथी आत्मज्ञानना बलवडे ममताभाव उठी गयोछे, तो ते मुनिवरोंने शरीर राग द्वेषनुं कारण यतुं नथी. तो पश्चात् व्यवहारथी गच्छमां वसेला तथा वसता एवा मुनियोने गच्छ उपर केम ममता थाय. अने केम गच्छ राग द्वेषतुं कारण थाय ? अलबत याय नहीं. गच्छ एटले साधुनो समुदाय, समूह, तेम ज्ञानीने केम मोह थाय ? अने अज्ञानी तो गच्छतो स्वीकार करे नहीं, तो पण शरीरपर ममता धारण करे. ज्ञानना अभावे संवरनां कारणो पण अज्ञानीने 'आश्रवरुपे परिणमेछे. जेनाथी बंधायछे, तेनाथी ज्ञानी छुटेछे, माटे ज्ञानी गुरु मराराजा अंतरमांथी संसार खेलयकी न्यारा रही वर्तेछे, ज्ञानिको भोग
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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