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परमात्मदर्शन.
( ३१३ )
खेद थयो अने विचारवा लाग्यो के अहो जे पिंगलाने हूं पटराणी तरीके मानतो हतो अने जे मारी प्राणामिया हती. अने हुं जेना उपर पूर्ण विश्वास राखतो हतो ते पिंगलाराणी पण अंते मारी थइ नहि. अने तेणीए कामना आवेशथी नीचनी साथ संबंध कर्यो माटे तेने धिक्कार थाओ. अहो जगत्ना जीवो कामावेशथी पुण्य पाप गणता नथी. एवा कामने पण धिक्कार पडो अने आ संसारमा हुँ जेने सारभूत मानतो हतो एवी पिंगला पण मारी थइ नहि. अहो ज्ञानीओए संसारने असार कोछे तेमां जरा मात्रपण असत्य नथी. एम चिंतवी तापसी दीक्षा अंगीकार करी पर्वतनी गुफामा चाल्यो गयो, अने तेमणे भर्तृहरि शतकनी रचना करी. माटे संसारमा सारभूत धर्म विना अन्य कशुं जणातुं नथी. माटे भव्यजीवोए पण सांसारिक मोहमायाथी दूर रही आत्मिक धर्मारानमां तत्पर थइ धर्माराधन करं, अने स्त्रीविषयाभिलाषनो त्याग करवो. शास्त्रमां विषयने विषनी उपमा आपीछे त्यारे वळी एक महात्मा कहे छे के, विषयने विषनी उपमा आपवी ते योग्य नथी. कारण के, विष तो एक भव भक्षतां प्राण हरी दुःख आपेछे अने विषयो तो अनेक भव पर्यंत परिभ्रमण करावी दुःख आपेछे. माटे विषना करतां पण मोटी उपमा आपवी जोइए. विषयथी थतुं सुख स्वसुख समान मिथ्या कल्पना मात्र छे.
तथाच श्लोक.
स्वने दृष्टं यथापुंसः क्षणमात्रं सुखायते प्रबुद्धस्य नतकिंचित् एवं विषयजं सुखं. १
स्वां देखेलो पदार्थ पुरुषने क्षणमात्र सुख आपेछे अने ज्यारे ते मनुष्य जागेछे त्यारे कंइपण देखातुं नथी ए प्रमाणे विष
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